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________________ [ २ ] करनेमें संप्रज्ञात योगका तो संग्रह हो जाता है पर विक्षिप्त अवस्था जो सूत्रकारको योगरूपसे इष्ट नहीं है और जिसमें कितनी चित्तवृत्तियों का निरोध अवश्य पाया जाता है उसमें अतिव्याप्ति होगी । यदि उक्त अतिव्याप्तिके निरासके लिये अध्याहार किया जाय तो सम्प्रज्ञातमें अव्याप्ति होगी, क्योंकि उसमें सब चित्तवृत्तियाँ नहीं रुक जातीं । इस तरह ' सर्व ' शब्दका अध्याहार करनेमें या न करनेमें दोनों तरफ रज्जुपाशा होनेसे 'क्लिष्ट ' पदका अध्याहार करके " योगः क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधः " इतना लक्षण फलित करना चाहिए, जिससे न तो विक्षिप्त अवस्था में अतिव्याप्ति होगी और न सम्प्रज्ञातमें अन्याप्ति | यह तो हुई सूत्रको ही संगत करने की बात, पर श्रीहरिभद्र जैसे आचार्यकी सम्मति बतलाकर उपाध्यायजी जैन शैलीके अनुसार योगका लक्षण इस अकार करते हैं- " जो धर्मव्यापार - अर्थात् स्वभावोन्मुख या चेतनाभिमुख क्रिया - समिति गुप्ति स्वरूप है वही योग है; क्योंकि उसीसे मोक्षलाभ होता है । " सूत्र ११ --- पाद १ सूत्र ६ से ११ तकमें निरोध करने ोग्य पाँच वृत्तियोंका निरूपण है । इसपर उपाध्यायजीका कहना यह है कि - सूत्रकारने वृत्तियोंके जो पॉच भेद किये हैं सो तात्त्विक नहीं किन्तु उनकी रुचिका परिणाममात्र है । क्यों कि विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पीछली तीनों वृत्तियाँ यथार्थ तथा यथार्थ उभयरूप देखी जाती हैं, इस
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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