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________________ उपाध्यायजी श्रीयशोविजयजी कृत-- योगवृत्तिका सार. प्रथम पाद । सूत्र २-सूत्रकारने सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात ऐसे दो योग-जैसा कि पा० १ सू० १७-१८-४६-५१ में कहा है-मानकर उनका 'चित्तवृत्तिनिरोध' ऐसा लक्षण किया है । इस लक्षणमें उन्होंने 'सर्व' शब्दका ग्रहण इस लिए नहीं किया है कि यह लक्षण उभययोग साधारण है। सम्प्रज्ञात योगमें कुछ चित्तवृत्तियाँ होती भी हैं पर असम्प्रज्ञातमें सब रुक जाती हैं। अगर 'सर्वचित्तवृत्तिनिरोध' ऐसा लक्षण किया जाता तो असम्प्रज्ञात ही योग कहलाता, सम्प्रज्ञात नहीं । जब कि ' चित्तवृत्तिनिरोध' इतना लक्षण किया है तब तो कुछ चित्तवृत्तियोंका निरोध और सकल चित्तवृत्तियोंका निरोध ऐसा अर्थ निकलता है जो क्रमशः उक्त दोनों योगमें घट जाता है। सूत्रकारका उपर्युक्त आशय जो भाष्यकारने नीकाला है उसको लक्ष्यमें रखकर उपाध्यायजी कहते हैं कि-सर्वशब्दका अध्याहार न किया जाय या किया जाय, उभयपक्षमें सूत्रगत लक्षण अपूर्ण है। क्योंकि अध्याहार न
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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