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________________ १२ का सन्निवेश है । इस समय इसी में आपका विशाल पुस्तकालय स्थापित है । इसमें सभाप्य चारों वेद, उपनिषद्, और व्याकरण, दर्शन, अष्टादशपुराण, ज्योतिप, तन्त्र तथा काव्य - साहित्य के संस्कृतवाङ्मय का लिखित एवं मुद्रित रूप में संग्रह है । हिन्दी, बंगला, मराठी, और अगरेजी की चुनी हुई पुस्तकों तथा संस्कृत हिन्दी के मासिक पत्रों का संग्रह है । विद्याप्रेमी अधिकारी वर्ग इससे लाभान्वित होते रहते हैं । 1 आप इधर वृद्धावस्था के कारण प्रायः अस्वस्थ रहा करते थे और जयपुर से अपनी जन्म-भूमि को चले गये थे । वहीं अपने आश्रम 'पंडितपुरी' * में आपका औषधोपचार होता था । अन्त में समस्त परिवार स्त्री, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों के समक्ष ध्यान मग्न होकर चैत्र कृष्ण में विक्रम संवत् १६६४ में आप ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए। आपका अन्तिम संस्कार भगवती वासिष्ठी 'सरयू' नदी के तट पर कुलप्रथानुसार किया गया था । * अयोध्या ( जिला फैजाबाद उत्तर प्रदेश ) से पश्चिम आठ कोस पर यह स्थान है। ख़ास मौजा पिलखाचा हे । इसमें 'वयस' नामक क्षत्रिय और उनके धर्म-कर्म के आचार्य 'जोरवा' उपनाम के सरयूपारी पाण्डे ब्राह्मण रहते हैं । उत्तर रेलवे की लखनऊ - मोगलसराय लाइन पर फैजाबाद से चौथा स्टेशन 'देवराकोट' है । स्टेशन के दक्षिण पास मे ही 'पंडितपुरी' है। इसमें ५०७ घर अहीरों के और भूमि संपत्ति के साथ आपके पिता का बनवाया हुआ विन्ध्यपापाण का एक साम्बशिव का मन्दिर, कूप, फल-पुष्पवाटिका और पुस्तकालय आदि हैं । द्विवेदीजी ने इसका नामकरण 'शिव- दुर्गापीठ' किया है और अपने पिता के नाम से पीठ के प्रधान द्वार के समीप पाषाण पर खुदा हुआ एक कीर्ति स्तम्भ भी प्रतिष्ठित किया है। इस स्थान से दो मील उत्तर सरयू नदी बहती हैं | उक्त मंदिर मे संगमरमर के पाषाण मे उत्कीर्ण एक शिलालेख लगा हुआ है जोकि इस प्रकार है 'यः साक्षाद् यजुषा ऋचा च बहुशो वेदेषु मीमांस्यते यत्रैवेश्वरशब्दशक्तिविपयः शास्त्रेषु निर्धार्यते । यञ्चैकोऽपि विचित्रदर्शनदृशा नानाकृतिः कल्प्यते सोऽयं पापहरः शिव. शिवकृते वर्वर्ति सर्वोपरि ॥१॥
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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