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________________ १० प्रसंगवश आप संस्कृत कालेज के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किये गये और दीर्घकाल तक सुव्यवस्था एवं मर्यादा के साथ कार्यभार का संचालन किया तथा 'चातुर्वर्ण्य शिक्षा' आदि ग्रन्थों के निर्माण, और विभिन्न विषयों के अनेक ग्रन्थों के संस्करण में समय लगाया। जयपुर में निवास करते हुए श्राप सन् १६०४ ई० मे राज्य की आज्ञा से वंबई की 'पंचाग शोधन सभा' में अपने शिप्य वर्ग और दूसरे राज्यज्योतिपियो के साथ सम्मिलित हुए थे। यह सभा उस समय के शृंगेरी-मठाधीश श्रीशंकराचार्य की अध्यक्षता में हुई थी। इसके आयोजक लोकमान्य तिलक आदि प्रमुख धीरगम्भीर देश नायक थे। भारत के प्रत्येक प्रान्त से बडी संख्या में ज्योतिपियों का जमघट हुआ था। पंचाग विपयक सशोधन उपस्थित किया गया और तदनुसार सर्वसम्मति से नवीन करण ग्रन्थ ग्रहलाघव के नमूने का बनाना निश्चय हुआ। प्राचीन धार्मिक रूढिवादी और नवीन कायाकल्प के गणितन्त्रों ने उदयास्त ग्रहण आदि के दृक्प्रत्यय-कारक संस्कारों का विचार विनिमय किया। उसके वाद सालों तक चर्चा का प्रवाह जारी रहा और अन्त मे दक्षिण देश के 'सांगली' नगर में पुनः आपसी विवाद और काट-छांट के लिए ज्योतिप सम्मेलन रचा गया । परन्तु आज लगभग ७० वर्ष से काशी आदि मे जिन भीतरी प्रन्थियों को सुलझाने का विद्वानों ने प्रयास किया था उसका कोई सर्वसम्मत निपटारा न होसका। अपितु साम्प्रदायिक प्रन्थियां उलझती ही गई । अस्तु । ' उक्त अवसर पर आपने पूर्वापर के समन्वय, के साथ निर्णयात्मक 'पञ्चाङ्ग तत्त्व' नामक श्लोकवद्ध निवन्ध लिखा और वह विद्वत्समाज मे वितीर्ण किया गया । इस अवसर पर उक्त सभा के अध्यक्ष श्री शंकराचार्य महाराज ने आपको 'ज्योतिः कविकलानिधि' का प्रमाण पत्र अर्पित किया था। सन् १९१६ ई० मे आप हिन्दू-विश्वविद्यालय, वनारस के शिलान्यास समारोह मे जयपुर राज्य की ओर से प्रतिनिधि वनाकर भेजे गये थे। आपने वहां की संस्कृत शिक्षा संवन्धी पाठ्यपुस्तकों के बारे में अपनी स्वतन्त्र सम्मति दी थी, जो युनिवर्सिटी सम्बन्धी कार्यक्रम की रिपोर्टों में प्रकाशित है। आप वहां की ओरियन्टल फेकल्टी ( Faculty of Oriental Learning) के सभासद
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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