SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२) आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह स्वीकृत सिद्धान्त है कि विचार, चिन्तन । अथवा मनन ही शक्ति है और इसके द्वारा बाह्य भौतिक साधनों के बिना भी दूसरों के विचारों को प्रभावित किया जा सकता है तथा परिस्थितियों में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसी प्रकार मनन अथवा मन्त्र के सम्प्रयोग द्वारा देवसाक्षात्कार, चतुवर्गसम्प्राप्ति एवं ब्रह्मसायुज्य भी साध्य हैं। __ मन का अर्थ है चिन्तन । जिसके द्वारा मनन होता है वही मन है। मननशील ही मनु है । मन ही मन्त्र है। मनन एवं मन्त्रसाधन ही मानव की इतरजीवों से विशिष्टता है। स्तोत्र में देवता का गुणानुवाद, आत्मनिवेदन और वाञ्छासम्प्राप्ति के लिए प्रार्थना होती है। वह प्रार्थी की अपनी भाषा में हो सकती है। उसका अनुवाद भी अन्यान्य भाषाओं में किया जा सकता है। परन्तु, विशिष्ट प्रतिभावान विद्ववरिष्ठोंने कतिपय ऐले स्तोत्रों की रचनाएं की हैं जिन में प्रार्थना के साथ साथ तत्तद् देवतासम्बन्धी वीजाक्षरमन्त्र भी निगुस्फित रहते हैं और वारंवार स्तोत्रपाठ के साथ उन उन मन्त्रों का भी जाप होता रहता है। इस सरस प्रक्रिया के द्वारा सामान्य साधकों को भी इटसम्प्राप्ति सुलभ हो जाती है। स्तोत्रपाठ से श्रद्धा जागृत होती है और आत्मविश्वास में दृढ़ता आती है।' जब श्रद्धा को आत्मविश्वास पर आधारित बुद्धि और विनिश्चय का बल मिलता है तब मानसिक शक्ति का अपूर्व विकास होता है और एतद्द्वारा अन्यथा असम्भव कार्यों का भी साधन सम्भव हो जाता है। श्रद्धावान् के अन्तर में यह विश्वास दृढ़सूल हो जाता है कि दूसरे लोग यद्यपि उसकी अपेक्षा अधिक योग्यता एवं बुद्धि रखते हैं तथापि उसे देवप्रसाद का ऐसा अलौकिक वल सम्प्राप्त है जिस से वह उन से पीछे नहीं है। उन्हें जो कुछ प्राप्त होने वाला है वह और उस से भी अधिक उसे मिल सकता है। श्रद्धावान् में हीनभावना को अवसर नहीं है। श्रद्धा और विश्वास का समन्वय ही विशुद्ध विज्ञान की प्राप्ति का साधन है और उसकी सम्पादिका कुक्षी देवस्तुति ही है। १. क; श्रद्धादेवो वै मनुः । ऋग्वेद ख. यो यच्छद्धः स एव सः । ग, यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति । तत्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। गीता ।। त्वदन्यस्मादिच्छाविषयफललाभे न नियमः . त्वमर्थानामिच्छाधिकमपि समर्था वितरणे ।। इति प्राहुः प्राञ्चः कमलभवनाद्यास्त्वयि मन-. ... . त्वदासक नक्तन्दिवमुचितमीशानि, कुरु तत् ।। अानन्दलहरी ।।
SR No.010619
Book TitleBhuvaneshvari Mahastotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages207
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy