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________________ (११) करते हैं और मन्त्रगत अक्षरावलि के मात्रा, विन्दु, विसर्ग, पद और पदांश एवं वाक्य सम्बद्ध होकर मन्त्ररूप में विविध देवताओं के स्वरूप को अभिहित करते हैं। विभिन्न वर्गों में विभिन्न देवताओं की विभूतिमत्ता सन्निहित होती है । अमुक देवता का मन्त्र वह अक्षर अथवा अक्षरों का समूह है जो साधनशक्ति के द्वारा उसको (अभिधेय को) साधक की चेतना में अवतीर्ण करता है। यों मन्त्रविशेष के द्वारा उस के अधिष्ठातृदेवता का साक्षात्कार होता है। मन्त्र में खर, वर्ण और नादविशेष का एक क्रमिक रूद संगठन होता है। अत: उसका अनुवाद अथवा व्युत्क्रम नहीं हो सकता । क्योंकि उस अनुवाद में उस स्वर, वर्ण, नाद और पदसंघटना की आवृत्ति नहीं होती जो उस मन्त्र अथवा देवता के अक्यवीभूत हैं। नित्यप्रति के व्यवहार में भी देखा जाता है कि जिस व्यक्ति का जो नाम रख दिया जाता है वह उन्हीं अक्षरों, वर्णों और स्वरों का उच्चारण होने पर हमारे अभिमुख होता है, नाम में आये हुए शब्दों के अनुवाद में अथवा विपर्यास में वह अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। यथा-किसी का नाम राम नाल है तो वह इन्हीं चार अक्षरों के क्रमोबारित होने पर ही बोलेगा, अनुवाद करके 'दाशरथिरक्त' कहने पर नहीं। अतः मन्त्र किसी व्यक्तिविशेष की विचार-सामग्री नहीं है, प्रत्युत वह चैतन्य का ध्वनिविग्रह है। यद्यपि सभी शब्दसमूह शक्ति के विभिन्न स्वरूप हैं परन्तु मन्त्र और वीजाक्षर सम्बद्ध देवता के स्वरूप हैं, स्वयं देवता हैं, साधक के लिए प्रकाशमान तेज:पुञ्ज हैं। उस से अलौकिक शक्ति जागृत होती है। साधारण शब्दों का जीव के समान उत्पत्ति और लय होता है परन्तु मन्त्र शाश्वत और अपरिवर्तनशील ब्रह्म है। ...मन्त्र ही देवता हैं अर्थात् परा चित्शक्ति मन्त्ररूप में व्यक्त होती है। मन्त्री साधनशक्ति द्वारा मन्त्र को जागृत करता है । मूल में साधनशक्ति ही मन्त्र शक्ति के रूप में अधिक शक्तिशालिनी होकर व्यक्त होती है। साधना के द्वारा साधक का निर्मल और प्रकाशयुक्त चित्त मन्त्र के साथ एकाकार हो जाता है और इस प्रकार मन्त्र के अर्थस्वरूप देवता का उसको साक्षात्कार होता है। साधक की जीवशक्ति मन्त्रशक्ति के प्रभाव से उसी प्रकार उद्दीप्त होती है जैसे वायुलहरियों के सम्पर्क से अग्नि प्रज्वलित होती है । मन्त्रशक्ति से उपचित हुई जीवशक्ति के द्वारा ऐसे कार्य भी सम्पन्न किये जा सकते हैं जो प्रत्यक्ष में असम्भव प्रतीत होते हैं। या, यों कहें कि मन्त्रशक्ति के द्वारा जीवशक्ति को दैवी शक्ति प्राप्त हो जाती है और उस शक्ति के द्वारा दैवीकार्य सम्पन्न होते हैं, साधक दैवीसम्पत् प्राप्त करता है।। १. क, मन्त्री हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तसर्थमाह ।। स वाग्वनो यजमानं हिनस्ति, . यथेन्द्रशत्रु : स्वरतोऽपराधात् ।। . ख. एकःशब्दः सम्यग ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुम् भवति । महाभाष्ये ।
SR No.010619
Book TitleBhuvaneshvari Mahastotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages207
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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