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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना बडी शाखा के ( सम्भवत: ईडर ) कुछ श्रावकों ने विघ्न उपस्थित करने की कोशिश की थी। सूरत शाखा के भ. विद्यानन्दी ने काष्ठासंघीय श्रावकों के लिए भी मूर्तिप्रतिष्ठाएं कीं । इन के शिष्य श्रुतसागर सूरि के विविध सम्बन्धों का उल्लेख पहले हो चुका है। इन की परम्परा के भ. लक्ष्मीचन्द्र के शिष्यों में कारंजा के वीरसेन और विशालकीर्ति भट्टारक प्रमुख थे । इन के प्रशिष्य भ. ज्ञानभूषण के शिष्यों में भी काष्ठासंघ के भ. रत्नभूषण का समावेश होता था। सूरत के ही भ. वादिचन्द्र का नन्दीतटगच्छ के भ. श्रीभूषण के साथ एक बार वाद विवाद हुआ था। जेरहट शाखा के श्रुतकीर्ति ने दिल्ली के भ. जिनचन्द्र के शिष्य विद्यानन्दि का स्मरण किया है। ... माधुर गच्छ की दो विभिन्न परम्पराओं से लाटीसंहिता और जम्बूस्वामीचरित के कर्ता पण्डित राजमल्ल एक ही समय सम्बद्ध थे। एक ही गच्छ की होने पर भी इन परम्पराओं में अन्य विशेष सम्बन्ध नहीं पाए जाते। लाडवागड गच्छ के भ. पद्मसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन ने आशाधर को संघबाह्य कर दिया था तब उन ने श्रेणिगच्छ का आश्रय लिया था। इन की परम्परा के मलयकीर्ति ने तरसुम्बा में मयूरपिच्छ धारण करनेवालों का पराजय किया था। त्रिभुवकीर्ति के बाद इस शाग्वा में कोई भट्टारक नहीं हुए इस लिए इस के अनुयायी नन्दीतट गच्छ के भट्टारकों द्वारा ही समस्त धार्मिक कार्य कराते थे। नन्दीतट गच्छ के भ. श्रीभूपण और चन्द्रकीर्ति का मूलसंघ के प्रति बहुत ही विकृत दृष्टिकोण था । मयूरपिच्छ की उन ने खूब निन्दा की है। किन्तु इन्ही के परम्परा के इन्द्रभूषण के समय फिर से सेनगण और बलात्कारगण के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित हो गए थे। १४. शासकों से सम्बन्ध ___इस युग में किसी राजाने प्रत्यक्ष रूप से जैन धर्म धारण किया हो ऐसा 'प्रतीत नहीं होता । अपवाद सिर्फ राष्ट कूट सम्राट अमोघवर्ष का हो सकता है । आदिपुराण आदि के कर्ता जिनसेन, गणितसारसंग्रह के कर्ता महावीर एवं शाकटायन व्याकरण के कर्ता पाल्यकीर्ति ने आप की बहुत प्रशंसा की है। इंडर के राव भागजी के मन्त्री भोजराज जैनधर्मीय थे । इन के कुटुम्बीयों नं श्रुतसागर सूरि के साथ गजपन्थ और मांगीतुंगी तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की थी। For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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