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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० भट्टारक संप्रदाय इसी परंपरा के पल्लपण्डित ने आचार्य शाकटायन पाल्यकीर्ति की व्याकरणकुशलता का उल्लेख किया है । शाकटायन यापनीय संघ के थे यह सुप्रसिद्ध है। सेनगण की उत्तरकालीन परम्परा में भ. वीरसेन (प्रथम ) ने नन्दीतटगच्छ के भ. सोमकीर्ति के साथ एक प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था। इन के बाद भ. सोमसेन (चतुर्थ ) ने धर्मरसिक की प्रशस्ति में महेन्द्रकीर्ति का गुरु रूप में उल्लेख किया है। इन के शिष्य भ. जिनसेन पूर्वाश्रम में ईडर शाखा के भ. पद्मनन्दि के शिष्य रह चुके थे। इस परम्परा के अन्तिम भ. वीरसेनस्वामी का पट्टाभिषेक कारंजा के ही बलात्कारगण के पट्टाधीश भ. देवेन्द्रकीर्ति के हाथों हुआ था। इन के बाद भ. रत्नकीर्ति और भ. देवेन्द्रकीर्ति ये दो और भट्टारक बलात्कारगण की कारंजा शाखा में हुए । वीरसेन स्वामी के इन के व्यक्तिगत सम्बन्ध खास विरोध के नहीं थे । किन्तु इन के शिष्य वर्ग में परस्पर वैर की भावना बहुत तीव्र हो चुकी थी। अब नए युग के प्रभावसे यह विरोध लुप्तप्राय हो चुका है। लातूर और कारंजा ये बलात्कारगण की एक ही परंपरा की दो शाखाएं होने से आरंभ में इन के सम्बन्ध काफी अच्छे थे । किन्तु बाद में लातूर के भ, नागेन्द्रकीर्ति का कारंजा के भ. देवेन्द्रकीर्ति ( उपान्त्य) से एकबार अपने अधिकार क्षेत्र को ले कर कुछ विरोध भी हुआ था। दिल्ली शाखा के भ. जिनचन्द्र का प्रभाव व्यापक था। सूरत के भ. विद्यानन्दि, ईडर के भ. ज्ञानभूषण तथा अटेर के भ. सिंहकीर्ति और नागौर के भ, रत्नकीर्ति इन के प्रभावक्षेत्र में सम्मिलित होते थे। इसी शाखा के भ, चन्द्रकीर्ति का उल्लेख नागौर के भ. नेमिचन्द्र द्वारा लिखाई गई एक ग्रन्थप्रशस्ति में मिलता है। .. ईडर के भ. सकलकीर्ति ने ज्ञानकीर्ति, धर्मकीर्ति और भुवनकीर्ति इन को भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किया था। इन के शिष्य ब्रह्म जिनदास के अनेक शिष्य थे । इन में ब्रह्म शान्तिदास ने सकलकीर्ति की परम्परा के समान ही सूरत की भ. लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा से भी सम्बन्ध स्थापित किए थे । अपने ग्रन्थों के कारण अन्य अनेक सम्प्रदायों द्वारा सकलकीर्ति सन्मानित हुए थे। ईडर शाखा के ही भ. शुभचन्द्र ने सूरत के लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र का स्मरण किया है। __ भानपुर शाखा के भ. गुणचन्द्र के गुरु भ. सिंहनन्दी का सूरत शास्त्रा के श्रुतसागरसूरि तथा ब्रह्म नेमिदत्त ने आदरपूर्वक स्मरण किया है । इसी शान्त्रा के भ, रत्न चन्द्र (प्रथम ) का पट्टाभिषेक हेमकीर्ति द्वारा हुआ था किन्तु उस समय For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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