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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९४ भट्टारक संप्रदाय ६५५) । १३० रत्नभूषण के दूसरे शिष्य जयसागर ने ज्येष्टजिनवर-पूजा, पार्श्वनाथ पंच कल्याणिक तथा तीर्थजयमाला की रचना की (ले. ६५६६०) । १३१ रत्नभूषण के बाद जयकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १६८६ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ६६१ )। जयकीर्ति के पट्ट पर केशवसेन भट्टारक हुए । इन के बन्धु का नाम मंगल था तथा पट्टाभिषेक इंदोर में हुआ था । १३२ इन की रची आदिनाथपूजा उपलब्ध है ( ले. ६६२-६४ )। केशवसेन के पट्टपर विश्वकीर्ति भट्टारक हुए। आप ने संवत् १७०० में हरिवंशपुराण की एक प्रति लिखी (ले. ६६५) तथा आप के शिष्य मनजी ने संवत् १६९६ में न्यायदीपिका की एक प्रति लिखी । (ले. ६६६) . नन्दीतट गच्छ की दूसरी परम्परा लक्ष्मीसेन के शिष्य धर्मसेन से आरम्भ होती है । इन की लिखी हुई अतिशयजयमाला उपलब्ध है। बीरदास ने इन की प्रशंसा की है ( ले. ६६७-६८ )। धर्मसेन के बाद क्रमशः विमलसेन और विशालकीर्ति भट्टारक हुए। इन के शिष्य विश्वसेन ने संवत् १५९६ में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ६६९)। इन की लिखी आराधनासारटीका उपलब्ध है (ले. ६७०)। विशालकीर्ति ने डूंगरपुर में इन्हें अपना पद सौंपा था (ले. ६७२)। दक्षिणदेश में भी इन का विहार हुआ था (ले. ६७३ )। विजयकीर्ति और विद्याभूषण ये इन के दो पट्टशिष्य थे । विजयकीर्ति के शिष्य महेन्द्रसेन ने सीताहरण और बारामासी ये दो काव्य लिखे हैं (ले.६७४-७५)। . १३० कृष्णदास ही सम्भवतः भट्टारक केशवसेन हैं- (ले. ६६३ ) में इन के माता पिता के नाम देखिए। १३१ सम्भवत: ज्ञान भूषण के शिष्यरूप में (ले. ४८६ ) में इन्ही रनभूषण का उल्लेख हुआ है। १३२ पूर्वोक्त नोट १३० देखिए । For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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