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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ भट्टारक संप्रदाय राज्य था । क्षेमकीर्ति के शिष्यों में वैराट नगर के भी लोग थे । वहाँ का जिनमन्दिर चित्रों से अलंकृत किया गया था। क्षेमकीर्ति के पट्टशिष्य त्रिभुवनकीर्ति हुए । इन का पट्टाभिषेक हिसार में हुआ था (ले. ६०७) । इन के बाद संवत् १६६३ में सहस्रकीर्ति पट्टाधीश हुए ( ले. ६०८)। इन के शिष्य जयकीर्ति ने संवत् १६८५ में एक दशलक्षण यन्त्र स्थापित किया ( ले. ६०९ ) । इन की शिष्या प्रतापश्री की समाधि सपीदों नगर में संवत् १६८८ में बनी (ले. ६१०)। इन के एक और शिष्य दीपचन्द्र ने संवत् १७५५ में एक ऋषिमंडल यंत्र स्थापित किया (ले. ६११ )। सहस्रकीर्ति के पट्टशिष्य महीचंद्र के समय संवत् १७३९ में फतेहपुर में एक कुंआ बनाया गया था (ले. ६१२ )। महीचंद्र के शिष्य देवेन्द्रकीर्ति ने संवत् १७७० में फतेहपुर के एक पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया (ले. ६१३ )। देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य जगत्कीर्ति हुए । इन के शिष्य लालचंद ने संवत् १८४२ में संमेद शिखर माहात्म्य की रचना की (ले. ६१४)। जगत्कीर्ति के शिष्य ललितकीर्ति हुए । आप के समय संवत् १८६१ में फतेहपुर में दशलक्षण व्रत का उद्यापन हुआ (ले. ६१५) तथा संवत् १८८१ में पभोसा में एक मन्दिर का निर्माण हुआ (ले. ६१६ )। आप ने संवत् १८८५ में महापुराणटीका की रचना की (ले. ६१७) । १६ ललितकीर्ति के पट्ट पर राजेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १९१० में एक चन्द्रप्रभ मूर्ति, संवत् १९२३ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति तथा संवत् १९२९ में एक नेमिनाथ मूर्ति स्थापित की (ले.६१९-२०)। राजेन्द्रकीर्ति के बाद मुनीन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । इन का स्वर्गवास संवत् १९५२ में हुआ ( ले. ६२१)। ११६ ललितकीर्ति और कविवर वृन्दावनदासजी में अच्छे सम्बन्ध थे। इस विषय में पं. नाथूराम प्रेमी कृत वृन्दावनविलास की प्रस्तावना देखिए। For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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