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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलात्कार गण- सूरत शखो १९७ लक्ष्मीचन्द्र के समय श्रुतसागरसूरि ने यशस्तिलकचन्द्रिका, सहस्रनाम टीका, तत्त्वार्थ वृत्ति तथा षट्प्राभृतटीका की रचना की [ले. ४७२७४ ] | इन की प्रशस्तियों से पता चलता है कि श्रुतसागर ने नीलकण्ठ भट्ट आदि ९९ वादियों पर विजय प्राप्त की तथा सिद्धान्तसागर यति लिए यशस्तिलकचन्द्रिका बनाई । " लक्ष्मीचन्द्र के समय ब्रह्म जिनदास के शिष्य ब्रह्म शान्तिदास ने शान्तिनाथ बृहत्पूजा की रचना की। उस समय मुल्हेर में दयाचन्द्र भट्टारक थे (ले. ४७५ ) । पट्टावली से पता चलता है कि भ. लक्ष्मीचन्द्र भैरवराय, मल्लिराय, देवराय, वंगराय आदि १८ राजाओं द्वारा सम्मानित हुए थे तथा आप ने भ. वीरसेन, भ. विशालकीर्ति आदि से भी * सन्मान पाया था [ले. ४७६ ] | लक्ष्मीचन्द्र के पट्टशिष्य दो थे । इन में अभयचन्द्र का वृत्तान्त इसी प्रकरण के अन्त में संगृहीत किया है। दूसरे पट्टशिष्य वीरचन्द्र थे । आप ने बोधसताणू तथा चित्तनिरोध कथा की रचना की [ले. ४७७-७८ ] । आप ने नवसारी के शासक अर्जुनजीयराज से सन्मान पाया " तथा सोलह वर्ष तक नीरस आहार सेवन किया [ ले ४७९ ] । वीरचन्द्र के पट्टशिष्य ज्ञानभूषण हुए। आप ने संवत् १६०० में एक मूर्ति प्रतिष्ठित की तथा सिद्धान्तसार भाष्य की रचना की [ले. ४८० - ८१ श्रुतसागर के विषय में देखिए- पं. नाथूराम प्रेमी ( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४०६ ) तथा पं. परमानन्द ( अनेकान्त व. ९ पृ. ४७४ ) ८२ इनका वृत्तान्त ईडर शाखा के भ. सकलकीर्ति और भुवनकीर्ति के वृत्तान्त में देखिए | ८३ तुलुव राजा बंगराय (तृतीय) का राज्यकाल १५३३ - १५४५ ई. था | अन्य राजा कर्णाटक के स्थानीय शासक थे किन्तु उन का ठीक राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका । ८४ वीरसेन सम्भवतः कारंजा के सेनगण के भ. गुणभद्र के शिष्य हैं । विशालकीर्ति कारंजा शाखा के विशालकीर्ति ( प्रथम ) हो सकते हैं । ८५ अर्जुन जीयराज का इतिहास में कुछ विवरण नहीं मिलता । For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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