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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रस्तावना पूर्ण था। सौराष्ट्र में गिरनार और शत्रुंजय की यात्रा के लिए भट्टारकों का आगमन होता था किन्तु वहां कोई स्थायी पीठ स्थापित नहीं हुआ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काल में इसी प्रदेश में सागवाडा और ही एक परम्परा आगे चल कर ईंडर में आदि स्थान इन्ही पीठों के प्रभाव में थे। गिरि में माथुर गच्छ और बलात्कार गण के स्थानों में इन का प्रभाव था । मालवा में धारा नगरी प्राचीन समय में जैन धर्म का केन्द्र था । उत्तरवर्ती अटेर के पीठ स्थापित हुए । सागवाडा की स्थायी हुई । महुआ, डूंगरपूर, इन्दौर इसी के उत्तर में ग्वालियर और सोनाकेन्द्र थे । देवगढ, ललितपुर आदि 6 राजस्थान में नागौर, जयपुर, अजमेर, चित्तौड, भानपुर और जेरहट में बलात्कार गण के केन्द्र थे । हिसार में माथुर गच्छ का प्रधान पीठ था। पंजाब से कुछ स्थानों में पाई जाने वाली मूर्तियों के अतिरिक्त भट्टारकों का कोई सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता। दिल्ली से समय समय पर प्रायः सभी पीठों के भट्टारकों ने अपना सम्बन्ध जोडा है । किन्तु मेरठ और हस्तिनापुर के कुछ ग्रामों के अतिरिक्त उत्तरप्रदेश से भी भट्टारकों का कोई खास सम्बन्ध नहीं था । 1 प्रत्येक पीठ के प्रकरण के अन्त में दिये गए कालपट से उन के समय का स्पष्ट निर्देश होता है । मोटे तौर पर देखा जाय तो सेनगण के उल्लेख नौवीं सदी से आरम्भ होते हैं तथा उस की मध्ययुगीन परम्परा १६ वीं सदी से ज्ञात होती है । बलात्कार गण के उल्लेखों का प्रारम्भ १० वीं सदी से तथा मध्ययुगीन परम्परा का आरम्भ १३ वीं सदी से होता है । काष्ठासंघ के विभिन्न गच्छों के प्राचीन उल्लेख ८ वीं सदी से एवं मध्ययुगीन परम्पराओं के उल्लेख १४ वीं सदी से प्राप्त हो सके हैं। प्रत्येक पीठ का विशेष प्रभाव किस शताब्दी में रहा यह कालपटों से अच्छी तरह देखा जा सकता है । For Private And Personal Use Only ५. कार्य- मूर्ति प्रतिष्ठा मूल ग्रन्थ का सरसरी तौर पर अवलोकन करने से भी स्पष्ट होता है कि मारकों के जीवन का सब से अधिक विस्तृत कार्य मूर्ति और मन्दिरों की प्रतिष्ठा यही था । इस पूरे युग में मूर्तिप्रतिष्ठा का यह कार्य इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि आज के समाज को उन सब मूर्तियों का रक्षण करना भी दुष्कर हुआ है। इस का एक कारण यह है कि प्रतिष्ठा उत्सव को धार्मिक से अधिक सामाजिक रूप प्राप्त हुआ था। जिस प्रतिष्ठा का निर्देश इस ग्रन्थ के दो पंक्तियों के मूर्तिलेख में हुआ है उस के लिए भी कम से कम हजार व्यक्तियों को इकट्ठे आने का मौका मिला था ।
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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