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________________ निर्माण ६९ जो ममत्य में मे मति का त्याग करता है वह ममत्व का त्याग करता है। परमात्मा इस कपन का सफल चरितार्य प्रस्तुत करते हैं। राग की रुचियों में जो शान्त हो जाता है या ऐसा का कि राग की रुचि जिनकी समाप्त हो जाती है, वे ही तो परमात्मा हैं। __ आचार्यश्री या एक विशिष्टता और विलक्षणता भी प्रस्तुत करते हैं। वे मात्र राग और उसकी रुचि को समाप्त करने की दात पर ही नहीं रुकते परन्तु इसे साधना में लाकर प्रयोग से सफल कर दिखाते हैं। प्रत्येक आत्माओं की देह का निर्माण अपने-अपने कर्मों के अनुसार होता है। इस प्रकार पूर्वजन्म में संचित और निस्ति कर्मों के अनुसार जीव जन्म धारण करता है। सामान्य केवली और तीर्थकरों के केवलज्ञान में या वीतरागत्य में कोई अन्तर नहीं होता ., परन्तु तीर्थंकर के ध्ययन, जन्म, दीक्षा, शान और निर्वाण के पाच विशेष अवसर कल्याणक माने जाते हैं। ये आत्माएं परमात्म भव के पूर्व तीसरे जन्म में ही "सवि जीव कर शामनरसी" की भावना मे जगत के सकल जीवों के मोश हो जाने की भावना और पूर्वकषित २० विशेष कारणों की आराधना कर तीर्थकर नामकर्म का निकाचन करते हैं इम तीर्थकर नामकर्म के उदय मे ये अनुपम देहराशि और उत्कृष्ट दैवीय दंभव को प्राप्त करते हैं। इस श्लोक की सर्वोपरिता यह है कि चेतन और पुद्गल का सामजस्य ही समार में जीया है। जीवन का यह रहस्य अनादि अनन्त है। परम वीतराग प्रभु का जीवन भी इसी प्रकार पंतन-पुदगल का मेल-जोल है फिर भी अन्य सर्व सामान्य प्राणियों से इनमें जो विशिष्टता। उसे या गापा स्पष्ट करती है। आत्मा के राग भाव या विराग भाव का असर दे- नर्माण के समय में देह पर होता है। तत्सम्बन्धी पुद्गल-परमाणुओं का कामिक चयन ताई दीतराग परमात्मा के राा की रचि मर्दया शान्त-गमाप्त हुई रहती है अत उनके हरिण मे नियोजित परमाणु भी वैसे ही होते हैं। यही कारण है कि वीतरागता आत्मा सम्बन्धी तत्व होने पर भी दैहिक आभा भी इसे प्रकट करने में अपनी नहीं रहती है। आचार्यश्री इस अद्भुत रहस्य को प्रकट कर आगे काने है कि वे परमाणु ही सृष्टि में स्तो जिनसे आपका निर्माण हो गया तो पट दूसरा ऐमा अदभुत न तो निर्मित होता है, नोतिरता है। स रणीत अनुग्न मौन्दर्य फिनना आपको इसे एक मक्त हो यो यो मेला द सुन्दरी परत नही देता प्रति उत्तर ममता का निष्टुर सुन्दरता से मेरे लगनानी सुन्दर ती मुलामी गुन्दर रीपादन गन्दा
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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