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________________ दर्शन ६५ आचार्यश्री इन सब भक्त कवियों से भी ऊपर उठकर, इन शब्दों का प्रयोग कर हमें अनन्त निज स्यम्प की ओर मन्दर्भित करते हैं। सम्पूर्ण विश्वास Guarantee के साथ वे हमारी ममम्त चेतना को अपने परम प्रिय परमात्मा के निर्मल प्रेम से ऊर्जान्वित करते हैं। पलको में आचार्यश्री का आशय कोरी क्रियात्मक सवेदनाओ की अतृप्ति नहीं परतु सम्पूर्ण भायात्मक सयोजना का चिर सतोष है। ____ अनिमप नयनों मे देखते रहना, हमारे जीवन में कई बार गुजरा होता है लेकिन वह अतृप्ति और असतोप की अमिटता है। यहाँ परम तृप्ति और पूर्ण सतोष की सत्यान्वितता और, इसीलिए आगे कहा है "भवन्तम् दृष्ट्वा जनस्य चक्षु अन्यत्र तोप न उपयाति।" अन्यत्र में क्या अर्थ है ? कई दार हम अपने सासारिक विधानो से इसका अर्थ लगाते हैं, अब दूगरी जगा देखने योग्य नहीं हैं। दूसरा क्या है ? पराया क्या है ? किस Illusion (भम) नरमे घेर रखा है जिसे अब हमसे नही देखा जाता है। आचार्यश्री ने इस पंक्ति में गूढ़ गस्य भर दिया है। वे करते हैं जिन्हें तू अनिमेष देख रहा है वह दूसरा कोई नही तू स्वय । परम ज्योतिर्मय अनन्त पानदर्शन म्यरूप है। आनन्द से भरपूर अप्रतिम है। आचाराग मेका "जे अणण्णदसी से अणण्णारामे जे अणण्णारामे से अणपणदंसी।" जिस आन्य (आत्मा) के तू दर्शन कर रहा है उसी अनन्य (आत्मा) में तू रमण करता (प्रसर रहता है) और जिस अनन्य (आत्मा) मे तू प्रसन्न रहता है उसी अनन्य (आत्मा) के न दर्शन कर रहा है। अर्थात् जिसे देख रहा है वह त म्यय है। सत तरे अतिरिक्त जो भी कुछ है वह सर्व अन्यत्र है, अदिलोकनीय है, अदर्शनीय से अभी तक नहीं देख सक्ने के कारण ससार में अतृप्निमय अनेक दर्शन करते रहे। जतिपल प्रेम पत्र परिवर्तित होते रहे। अनन्त दानदिक इस धोखे में सदा पर्दे के पीछे 3-7सदा राम्यमय रहा। दमने दड़ा घोखा ससार में और क्या हो सकता है ? हम र अपने से ही एने तो जा रहे थे। परमाला लाज तुम्हें देखकर ये सारे रहस्य खुल गये। जो अव्यक्त या व्यक्त हो मागेका महिला या प्रकट हो गया। जो अनुप्न या सतुष्ट हो गया। सट 17 जया दो अन्य से प्रेम करेगा? चन्द्रमा की शुभ्र किरणों की र समुद्र मधुर जलपी पुरने के पश्चात लवण समुद्र के द्वारे पानी ' - . . . १४५
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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