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________________ ४४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि सता - सत्पुरुषो के, सज्जन पुरुषो के चेत हरिष्यति - चित्त को हरण करेगा ननु - निश्चय से उदबिन्दु - जल की बूंद नलिनीदलेषु - कमलिनी के पत्तो पर मुक्ताफलद्युतिम् - मोती की कान्ति को उपैति - प्राप्त करती है। सर्वश्रेष्ठ सम्बोधन "नाथ।" शब्द के द्वारा यहॉ परमात्मा के मिलन का प्रारभ हो रहा है। नाथ शब्द रखकर भक्त अपना सर्वस्व समर्पित कर रहा है। हे नाथ! तेरे बिना अभी तक मै अनाथ था, तुझे नाथ कहते ही मेरी अनाथता समाप्त हो गई और नाथत्व प्रकट हो गया, क्योंकि नाथ ही नाथ बनाता है, अनाथत्व मिटाता है। प्रारभ मे “इति मत्वा" शब्द भी अत्यन्त महत्वपूर्ण सम्बन्ध को प्रस्तुत करता है। "इति" याने "ऐसा" और "मत्वा" याने "मानकर"।"ऐसा मानकर" कहते ही प्रश्न उठता है "कैसा मानकर?" इस प्रश्न का उत्तर ऊपर के सात श्लोको से ही अभिव्यक्त होता है। आत्मा-परमात्मा के पूर्व सम्बन्ध का संकेत सुदृढ़ कर यह शब्द समापत्ति की योजना को अनावृत करता है। पूर्व नियोजित सात श्लोको मे मेरा और आपका मेरे द्वारा माना हुआ सम्बन्ध इस प्रकार है। आप मेरे लिये १ उद्योत करने वाले, २ घने अधकार रूप पापो के विस्तार का नाश करनेवाले, ३ ससार रूप समुद्र मे गिरते हुए प्राणियो के परम आलम्बन, ४ देवेन्द्रो द्वारा सस्तुत, ५ जिनका चरणासन विबुधो द्वारा अर्चित है, ६ गुणो के सागर हैं, और ७ आपके स्तवन से अनादिकालीन परम्परा का सर्जन करनेवाले पापो का क्षण मे ही नाश होता है। मै स्वय को आपका १ निश्चय से स्तुति करनेवाला (ऐसी प्रतिज्ञावाला) २ बिना बुद्धि का ३ बिना लज्जा का ४ स्तुति करने के लिए समुद्यत मतिवाला m
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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