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________________ ४० भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि होता है, परम्परा। पाप कैसे हैं तो कहते हैं कि सतति रूप। ससार मे स्त्री-पुरुष बध्य हो सकते हैं लेकिन पाप कभी बध्य नही हो सकते हैं। एक पाप दूसरे पाप को, दूसरा पाप तीसरे पाप को लाता ही जाता है। पाप की अपनी एक विशिष्ट परम्परा है और उस परम्परा का विच्छेद करना है। परमात्मा के सिवाय यह कैसे सभव है? व्यक्ति जब दुःखी होता है तब सोचता है, मुझे दुःख क्यो आया? एक बात निश्चित है कि कोई किसी को दुःख नही दे सकता है। ___हमारे कर्म अशुभ हो तभी हम दुःखी हो सकते हैं। दुःखी होते हैं कर्म से, लेकिन कर्म कौन देता है ? क्या हमे कोई जबरदस्ती कर्म देता है ? नही न। तो फिर कर्म कहा से आते हैं ? तो कहते हैं-पाप से कर्म आते हैं। हमारी गलती यह है कि हम दुःख हटाने का प्रयास करते हैं लेकिन पाप हटाने का प्रयल नही करते हैं। हमारी पाप की फैक्ट्री सतत चालू रहती है। पाप आते हैं, कर्म लाते हैं, कर्म आते हैं, दुःख लाते हैं। इसलिये आचार्यश्री ने परमात्मा से दुःख का नाश नही मागा किन्तु पाप का नाश मागा। देखिए, कितना सुन्दर आयोजन बताया उन्होने। ऐसा कभी नही कहा कि तेरे जैसा भगवान मेरे साथ हो और मुझे कोई राजा बेड़ियों मे बाध दे? उन्होने ऐसा भी नही कहा कि तू आकर के इन बेड़ियो को तोड़ दे। पाप तो अनादिकाल से हैं। इन्हें तोड़ने के लिये कितने घटे चाहिये- ४ घटे, ८ घटे, १२ घटे। हमारे पास वैसे तो कोई शक्ति नही है कि अनादिकाल के पापो को क्षण भर मे तोड़ सके, लेकिन क्षण भर में अनादिकाल के पापो को बाध सकते हैं, यह ताकत हम मे अवश्य है। इस ससार को क्षण भर मे बाध सकते हैं इतनी ताकत तो हम मे है, लेकिन अनादिकाल से सलग्न ससार को क्षण भर मे तोड़ने का बल हम मे नही है। आचार्यश्री कह रहे हैं-अनादिकाल के पापो का क्षण भर मे नाश हो सकता है। हम आचार्यश्री से प्रश्न पूछेगे कि जो अनादिकाल से पाप करते आये हैं, उनको क्षण भर मे कैसे तोड़ सकते हैं? यह कैसे सभव हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्यश्री ने आगे की पंक्तियो मे दिया है आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्॥ एक बहुत सुन्दर उदाहरण द्वारा आचार्यश्री यहाँ समाधान सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त भवरे जैसी अमावस्या की काली हटाने के लिये कितने घटे चाहिये? १२, १५ घटे के अधकार को सर मे नष्ट कर देती है। उसी प्रकार अनादिकाल के पाप • कृपा रूपी किरण के द्वारा क्षणमात्र मे नष्ट हो सकते हैं।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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