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________________ __२८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि एक महत्वपूर्ण कल्प शब्द से हम सम्बन्धित हैं जो हम मे रात-दिन उठता रहता है। जिसे हम कल्पना भी कहते हैं। इसी से सकल्प-विकल्प शब्द निकले हैं। इन विकल्पो के अन्तकाल की चर्चा आचार्यश्री का ध्येय रहा है। कल्प के अन्त पर जो स्थिति है वह निर्विकल्प स्थिति है। ऐसी निर्विकल्प स्थिति के लिए जब साधक निकलता है तब उसे कौन अवरुद्ध करता है ? तो कहते हैं पवन उद्धत होता है और बडे-बडे भयकर मगरमच्छ उठते हैं। पवन याने मन। जब मन उद्धत होगा तो समस्त इन्द्रियाँ और प्राण उद्धत होगे और उनके उद्धत होने से अध्यवसाय दूषित होते हैं। और, जब अध्यवसाय दूषित होते हैं तो ससार के सारे विषम आवेग रूप मगरमच्छ उसको आकर घेर लेते हैं। अनेकानेक विकृतियो से मन उद्वेलित हो जाता है। इस निर्विकल्प (कल्पात) स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक को अनेक प्रयास करने पड़ते हैं। परमात्मा का स्मरण या शरण-ग्रहण इस साधना मे परम सहयोगी रहकर सफल करता है। “भक्तामर स्तोत्र" का यह श्लोक इसकी अभिव्यक्ति है। प्रभु । ऐसे इस महासमुद्र को मुझे भुजाओ से पार करना है। यह कैसे सभव है ? यहाँ "क अलम्" शब्द से प्रश्न को विराम देकर यह आशा सूचित कर रहे हैं कि “परमात्मा। मै अवश्य इसे पार करूँगा क्योकि मुझे सामने तुझ स्वरूप गुणसमुद्र नजर आ रहा है। तेरे इस झलकते प्रतिबिम्ब के सहारे मै इसे अवश्य पार कर लूंगा। तेरे गुणो का स्मरण कर, शरण-ग्रहण कर तेरे चरणो मे नमन कर तुझ-मुझ मिलन के मन्त्र को अन्तर्मन मे प्रस्थापित करता हुआ जन्म-जन्म के बन्धनो से मुक्ति पा लूंगा।"
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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