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________________ २६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि अर्थात् समर्थ नही होते हैं। "गुणान्" कैसे गुणान्, तो कहते हैं “शशाककान्तान् गुणान्" "शशाक' शब्द चन्द्र का पर्यायवाची है। तीसरे श्लोक मे इन्दु बिम्बम् चन्द्र परमात्मा का प्रतीक था। चौथे श्लोक मे उपमान स्वय उपमित हो रहा है। ___ चन्द्र को इतना महत्व मानतुगाचार्य ने क्यो दिया है ? चन्द्र जैसे निर्मल। यो देखा जाय तो गुण और चन्द्रमा दोनो मिलते ही नही। चन्द्रमा इतना निर्मल नहीं है जितने परमात्मा के गुण निर्मल हैं। फिर भी उन्होने चन्द्र शब्द से गुणो को उपमित कर लिया है। इसका क्या कारण था? आप जानते हैं कि चन्द्र का मन के साथ बहुत निकट का सम्बन्ध है। किसी भी ज्योतिषी के पास अपना टेवा लेकर जावो और वह यह कहता है कि आपका चन्द्र बहुत प्रबल है तो आप समझेगे कि आपका मन शक्तिशाली है और यह कहे कि आपका चन्द्र निर्बल है तो इसका मतलब है कि इस दुनिया की घटनाए कुछ भी होगी लेकिन आप अपने मन से पराजित होते जायेगे। इसके अतिरिक्त दूसरी जगह “चन्द्र' शब्द का प्रयोग देखेगे-सिद्धो के गुणो के लिए, सिद्ध शिला के लिए। सिद्धो के स्वरूप का वर्णन करते समय “चदेसु निम्मलयरा", चन्द्र से भी निर्मल | इस प्रकार "चन्द्र" शब्द का हमारे साथ बहुत निकट का सम्बन्ध है। योगशास्त्र के अन्दर विशुद्धि चक्र मे चन्द्र का ध्यान करने का विधान है। कभी तेज गरमी या तीव्र धूप मे बैठकर विशुद्धि चक्र का ध्यान करोगे तो आप जैसे Air-Condition मे बैठे हो वैसी ही शीतलता महसूस करोगे। ऐसी एक योग विधि है जिसका कोई भी प्रयोग कर सकता है। और इसकी प्रतीति भी कर सकता है कि जो प्रतिबिम्बित होता है वही मै हूँ और कोई नही। ___हे गुण समुद्र' मै तेरी परिचर्या इसलिये कर रहा हूँ कि तू जैसा है वैसा का वैसा मै भी गुणो का स्वामी हूँ। मुझ मे अनन्त ज्ञान है, अनन्त दर्शन है, अनन्त वीर्य है लेकिन जैसे बादल से सूर्य ढका रहता है वैसे मेरे समस्त गुण आवृत हैं। मै तेरे अधीन इसलिये हो रहा हूँ कि तू सर्वथा कर्मो से मुक्त है। तेरा स्मरण करके मुझे अपने कर्म तोडने हैं, इसलिए हे परमात्मा। तेरे गुणो का स्मरण कर मै अपने गुणो को आविर्भूत करना चाहता हूँ। एक बात निश्चित है कि परमात्मा के अनन्त गुणो मे से एक गुण की भी याचना कर आप गुण प्राप्त नही कर पायेगे, लेकिन उनके गुणो का स्मरण करके हम मे जो गुण आवृत हैं उनको अनावृत करेंगे, उनको चीरेंगे, उनको फाडेगे, उनको खोलगे और भीतर से हम अपने आप को परमात्म स्वरूप मे पायेगे। इन दो पक्तियो मे भक्त मानतुगाचार्य हमे इतना ऊपर उठा लेते हैं कि हमे लगता है, हम भी अनन्त गुण के स्वामी हैं, हम भी । । से कुछ कम नहीं हैं। प्रश्न इतना ही है कि उनके गुण प्रकट हो चुके हैं, हमारे गुण अप्रकट हैं। अब अगली पक्तियो मे इस आवरण के कारणो को समझाते हैं कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र। को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम्॥
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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