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________________ १४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ३ अहं स्तोष्ये-शब्द मे निहित "मै" स्तुति करने वाला के अभिवाचक आचार्य श्री मानतुग स्वय उस काल के इतिहास प्रसिद्ध आचार्य है। वर्तमान मे हम उनसे अभेद कर स्तोत्र चैतन्य जगाते हैं अत "प्रणत" शब्द मे "नमो आयरियाण" निहित है। ४-५ आचार्य मे उपाध्याय और साधु के सहज गुण निहित होते हैं अत इसी से "नमो उवज्झायाण" और "नमो लोए सव्वसाहूण" ये दो मत्र निहित हैं। परमार्थ से चौथा रहस्य है-इसमे निहित नवतत्त्वात्मक विश्लेषण। भक्त जीव है प्रथम तत्त्व। उसका प्रतिपक्षी तत्त्व अजीव है। जब तक जीव अमर याने मोक्ष पद को नही प्राप्त करता है तब तक कर्म-पुद्गल-अजीव से सतत सबधित रहता है। "सम्यक् प्रणम्य" शब्द पुण्य का द्योतक है, क्योकि पुण्य के नव प्रकारो मे सर्वश्रेष्ठ सर्वथा महत्त्वपूर्ण नमस्कार पुण्य है। “दलित पापतमो वितानम्" पद पापतत्व का द्योतक जीवाजीव की पारस्परिक क्रीडा-रति से जीव मे अजीव का आनव होता है। 'सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुग"-पद जीव के इस भौतिक खेल को बद करने रूप सवर तत्त्व की ओर इगित करता है। समस्त पापकर्मों को “दलित” करना अपने आप मे “निर्जरा तत्त्व" हैं। जीव-अजीव का परस्पर सायोगिक सबध "बधतत्त्व' है। "अमर" पद अतिम "मोक्षतत्त्व" का प्रतीक है। पाचवे रहस्य मे इसमे परमार्थ से षड्द्रव्य निहित हैं। १ आलम्बन-याने सहारा। जो गति मे सहायता प्रदान करे वह धर्मास्तिकाय है। परमात्मा के चरणो का आलम्बन हमारे मोक्षमार्ग की गति मे सहायता प्रदान करता है। २. “अहम् किल स्तोष्ये"-यहॉ किल शब्द निश्चय का सूचक है। अधर्मास्तिकाय स्थिरता करने वाला है। आराधना मे नैश्चयिक स्थिरता लाने वाला स्तोत्र हमारी आध्यात्मिकता का अधर्मास्तिकाय है। ३ आकाशास्तिकाय याने (Space) देने वाला। अर्थात् विस्तार। यह वितानम् शब्द से परिलक्षित होता है। ४ पाप आदि पुद्गल होने से पुद्गलास्तिकाय है। ५ भक्त याने जीव। अजीव कभी भक्ति करता नही अत भक्त शब्द जीवास्तिकाय ६ “युगादौ'' मे प्रयुक्त “युग" शब्द विशेष काल का सूचक है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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