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________________ आशीर्वचन - कृति सदा आकृति की प्रकृति है। प्रकृति आकृति की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति अनुभूति की प्रतिमूर्ति है। प्रतिमूर्ति सस्कृति बनकर प्रवृत्तिमय होकर स्तुति बन जाती है। तव हृदय से जो प्रकट होता है वह स्तोत्र बन जाता है। भक्तामर स्तोत्र एक ऐसा ही प्रकट स्तोत्र है। भक्तिप्रिया साध्वी दिव्या ने भक्तामर स्तोत्र की साधना करके अपनी मुक्त भावतरगों द्वारा परमात्मा के चरणो में सहज समर्पण किया है। यही कारण है कि उसे इसमे से परमार्थ प्राप्त हुआ है। यह परमार्थ सृष्टि का वरदान बने इस हेतु मैंने उसके सवेदनशील भावो को प्रवचन का रूप देने का आग्रह रखा। मेरे इस आग्रह को आदेश मानकर उसने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार ये प्रवचन उसके परमात्म-प्रेम की वह अनुभूत धारणा है कि प्रवचन को सुनते समय अतर्दर्शन और परमात्मदर्शन का कोई अवसर अवश्य आ जाता है। ___ सच कहूँ तो ये प्रवचन ही नही, जीवन दर्पण है, इसमे अपने आप को निहार लो। ये तो पावन अमृत है, इसका मधुर पावन पान कर लो। यह हृदय की उर्मि का झरना है। यदि प्यासे हो तो पान कर लो या फिर चाहे स्नान कर लो। उलझने सब मिट जाएगी एक अमिट की याद रहेगी। नमन अरिहन्त को करलो तो ना कोई फरियाद रहेगी। आचार्य मानतुग की युग-युग तक आवाज रहेगी। दिव्या की परमार्थ भावना सदा-सदा आबाद रहेगी। -साध्वी मुक्तिप्रभा
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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