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________________ १६४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि हुए लोग नीचे उतरे। इतने मे किसी का ध्यान गढ्ढे मे होने वाली हलन-चलन की ओर गया। बच्चा भीतर से बाहर निकलने का खुद ही प्रयास कर रहा था। अत बाहर ऊपर की ओर इस प्रकार की हिलचाल हो रही थी। सबंधियो ने बडी हिम्मत से गड्ढे को खोदने का साहस जुटाया और वास्तविकता का पता लगाया। बच्चे का प्रारब्ध समझो या स्तोत्र का चमत्कार, पर बच्चा गढे से बाहर निकल सका। जो बिलकुल असभव लगता था, वह सहज सभव हो सका। आज भी वह बच्चा बडा होकर अपने परिवार के साथ विदिशा मे रहता है। वह कहता है, पता नही मुझे कहॉ से इतना बल और शक्ति मिल रही थी कि मै बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था। इधर नौवा भक्तामर होते-होते ही बच्चा मिल जाने की खुश खबरी से वातावरण तनावरहित हो गया था। इसी प्रकार पाली में एक अजीब सा प्रसग हुआ। समाज के अध्यक्ष श्रीमान् घीसुलालजी मुथा के पुत्र मिलापचद जी रहते हैं। प्रात काल घर से दुकान जाते हुए पता नही कौन किस प्रकार कहाँ उनको ले गया। परिवार वालो को पता लगते ही खोज-बीन चालू हो गई। तनावपूर्ण वातावरण मे भी मिलापचद जी की भाभी श्रीमती कमलादेवी भागी हुई स्थानक (रघुनाथ स्मृति भवन) मे हमारे पास आयीं। हमने उन्हें आश्वासन देकर नमोकार मन्त्र की माला और एक भक्तामर, पुन एक माला और भक्तामर इस प्रकार जाप क्रम जारी रखने को कहा। जाप के प्रभाव से समझो चाहे भाग्य परन्तु मिलापचद जी वापस लौट आये। ___ एक विचित्र अनुभव हमे और हुआ है। एक बार हम खपोली से विहार कर चोक की ओर जा रहे थे। प्रात काल वर्षा हो जाने से विहार देर से हुआ। आहार-पानी लेकर हम लगभग ११/३० बजे खपोली से रवाना हुए। ३ कि मी पार कर लेने पर देखा तो हमसे दशेक कदम पीछे एक अजीब सी महिला चल रही थी। जिसकी लबाई सात-आठ फीट थी। आकृति भी अजीब सी थी। जमीन को नही छूती हुई वह तेज चलती थी, लेकिन चलते वक्त उसके दोनो हाथ स्थिर रहते थे।हमने हिम्मत कर जोर से स्तोत्र पाठ का स्मरण किया और करीब १२ कि मी का वह पथ हमने जाप से सपन्न किया। चोक पहुंचने से पूर्व ही कुछ दूरी पर हमने देखा तो पीछा करती हुई वह महिला अदृश्य हो गई थी। यह प्रसग इतना अविस्मरणीय है कि याद आते ही लगता है जैसे आज अभी घट रहा हो। भक्तामर स्तोत्र के द्वारा अरिहत परमात्मा की भक्ति करने का सुअवसर आज के युग मे उपलब्ध करना यही सबसे बड़ा चमत्कार है। मुझे इसकी उपलब्धि ही बड़े चमत्कारी ढग से हुई है। अरिहत परमात्मा पर अनुसधान करते समय एक बार ऐसी रुकावट आ गई कि आगे कोई रास्ता ही नही सूझ रहा था। अनेक प्रयासो के बाद भी जब काम न जम सका तब निराश होकर मै जाप करती हुई सो गई। रात के करीब ३ बजे स्वप्न मे ही पद्य ३६ का जाप मेरे से हो रहा था। वीतराग परमात्मा के परम शरण स्वरूप चरणो पर अपना मस्तक रखकर नमस्कार की मुद्रा मे समर्पित हो रही थी और मुझे कोई
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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