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________________ १५४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि वर्तमान में व्याप्त दिव्यदृष्टि विद्या (Clairvoyancc), मानसिक सक्रमण (Tclepathy), आत्मवाद (Spintualism), वशीकरणविद्या (Hypnousm) आदि सर्व प्राणायाम शक्ति की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। प्रयोगकर्ता अपनी सूक्ष्मतम अनावृत प्राणशक्ति को ही तीव्रता के साथ उपयोग मे लेता है। अपने प्राणो.के विशिष्ट स्पदनो को वह किसी आधार से समायोजित करता है। ये आधार मन्त्र या स्तोत्र अधिक रहे हैं। अक्षर ध्वनियाँ बनकर हमारी अनावृत ऊर्जा को प्रकट करने मे परम सहयोगी सिद्ध होती हैं। स्नायु प्रवाह दो प्रकार के होते हैं। एक ज्ञानात्मक या अन्तर्मुखी और दूसरे गत्यात्मक या बहिर्मुखी। इसमे ज्ञानात्मक स्नायु प्रवाह केन्द्र की ओर ले जाता है और मस्तिष्क को सवाद पहुंचाता है। दूसरा गत्यात्मक स्नायु प्रवाह केन्द्र से दूर मस्तिष्क के अगो मे सवाद पहुंचाता है । यद्यपि अत मे दोनो ही मस्तिष्क मे मिल जाते हैं। वहाँ ये स्नायु प्रवाह एक बल्व की तरह अडाकार पदार्थ मे समाप्त हो जाते हैं। इसे मेडूला (Medulla) कहते हैं। यह रहता है मस्तिष्क मे परन्तु मस्तिष्क से अछूता और असलग्न रहकर एक तरल पदार्थ के रूप मे तैरा करता है। इससे सिर पर चोट लगने पर भी उसकी शक्ति तरल पदार्थ मे फैल जाने से बल्व को आघात नही पहुँचता है। ___अब हम बहिर्मुखी स्नायु प्रवाह की परिस्थिति का निरीक्षण करेंगे जिसका प्रभाव हम अन्य विधाओ के माध्यम से देखते हैं। विद्युत्गति इसका मुख्य कारण है। वस्तुत विद्युतगति समस्त परमाणुओ की अनवरत एक दिशा मे गतिशील अवस्था मात्र है। किसी भी स्थान मे स्थित समस्त वायु परमाणु यदि एक ही ओर अविच्छिन्न रूप से प्रवर्तित किये जायें तो वह स्थान महाविद्युत् धारायन्त्र Batteryवत् हो जाता है। दोनो स्नायु समूह पर विद्युत् का प्रयोग करने से उन दोनो मे धनात्मक और ऋणात्मक दो विपरीत शक्तियाँ उद्भूत होती हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि हमारी अपनी इच्छा शक्ति आत्मशक्ति (Will power) वनकर स्नायु प्रवाह में परिणत होकर विद्युत् रूप बन जाती है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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