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________________ लक्ष्मी समर्पण १४५ निबद्धा बनायी हुई Dथी हुई रुचिर वर्ण . मनोज्ञ अक्षरो वाले, सुन्दर-सुन्दर रग अलकारो से युक्त विरगे पुष्पो से युक्त कठगता धत्ते भावपूर्वक जपता है कठ मे धारण करता है अथवा पहनता है मानतुगम् आचार्य मानतुग का ऊँचे सन्मान वाले नाम निर्देश वाचक शब्द भक्त को मोक्ष लक्ष्मी पुण्य-वेभव अभ्युदय प्रस्तुत श्लोक मे प्रयुक्त शब्द विशेष का पूर्व श्लोको के साथ वड़ा रहस्यमय सम्बन्ध हे १ जिनेन्द्र शब्द का सम्बोधन प्रारभ मे श्लोक २,३६ और ३७ मे आया है। पहले मे सम्बन्ध जोडकर ३६ मे चरण कमल के वर्णन मे और ३७ मे परमात्मा के वाह्य वैभव की पूर्णाहुति मे प्रयुक्त है। २ मया शब्द श्लोक २ के अह से जुड़ा हुआ है। प्रारभ की भूमिका मे जो अह, अह (Ego) का प्रतीक था वह श्लोक ८ मे "मया" बन गया। वही "मया" यहाँ अतिम गाथा मे दर्शाया है कि में नही करता हूँ परन्तु आपकी परम भक्ति से यह मेरे द्वारा हो जाता है। भक्त की ऑखे बद हैं। भावो मे समर्पण है। मुद्रा प्रसन्न है। मस्तक झुका हुआ है। परमात्मा ने कहा-वत्स । बोल तुझे क्या चाहिये? भक्त ने कहा सर्व जीवों का कल्याण हो, सर्व जीव मोक्ष को प्राप्त हों, सर्व भक्त अमर पद को प्राप्त करें। आचार्यश्री स्वय को उपसर्ग रहित स्थिति मे अनुभूत कर कायोत्सर्ग पालकर खड़े होते हैं। जयनिनादो से राजधानी गूंज उठती है। सम्पूर्ण वायुमडल विशुद्ध बन जाता है। जय घोषणाओ के नाद विश्रुत और व्यापक होते हैं। परमात्मा आदिनाथ की जय! मुनिश्री मानतुगाचार्य की जय! जिन शासन की जय!
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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