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________________ ११० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि नाथ । त्रिभुवनार्तिहराय तुभ्यम् नम क्षितितलामलभूषणाय तुभ्यम् नम त्रिजगत परमेश्वराय पृथ्वी तल के निर्मल उज्ज्वल अलकार रूप तुम्हें / तुमको नमस्कार हो तीन जगत के परम पद मे स्थित अरहत प्रभु तुम्हें / तुमको नमस्कार हो जिनेश्वर भवरूपी समुद्र या समुद्र जितने विशाल भवो का शोषण करने वाले तुभ्यम् तुम्हें / तुमको नम नमस्कार हो । हे नाथ! आप तीनो लोको की अर्ति याने पीडा, व्यथा, वेदना, यातनाओ का हरयाने हरण करने वाले हो। कितना बडा चमत्कार। भावपूर्वक नमस्कार से सर्व दुखो का नाश | सिर्फ दुःख का नाश ही नही करते हैं आप क्षिति के निर्मल अलकार हो । हमारी शोभा हो, सुख और आनद के कारण हो । परम ऐश्वर्य स्वरूप हो और समुद्र जितने विशाल अनेक भवो का शोषण कर सहज सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति करने वाले हो । ऐसे हे परमात्मा' आपको पुन - पुन नमस्कार हो । तुभ्यम् नम जिन भवोदधिशोषणाय - - मुनीश । यदि नाम - - - 1 हे नाथ! तीनो लोको की पीड़ा-व्यथा-वेदना कष्ट को हरण करने वाले तुम्हें तुमको नमस्कार हो - भावपूर्वक इन नमस्कार से परमात्मा के गुण हममे प्रकट होते हैं और दोषो का क्षय होता है । अत कहते हैं को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं सवितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपात्त- विविधाश्रय जात-गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ हे मुनीश्वर । हमे ऐसा लगता है कि
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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