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________________ १०६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि १३ कहते हैं आप अनत हो। आपका ज्ञान अनन्त है। आपका दर्शन अनन्त है। आपके गुण अनन्त हैं। अनत अनत समृद्धि के आप भडार हो। अनत के हृदय मे प्रतिष्ठित होकर आप अनत स्वरूप हो। १४ अनगकेतु भी आप हो। परमात्मा विकार से रहित है। और हम विकार से युक्त हैं। हम कभी प्रार्थना की भाषा में कहते हैं-परमात्मा तू महान् है, हम लघु हैं। तू विकारो से रहित है, मै विकार से युक्त हूँ। क्या मतलब होता है ऐसा कहने का? भक्तामर स्तोत्र कहता है परमात्मा तू विकारो से रहित है और "त्वामेव सम्यगुपलभ्य" तू जिसको प्राप्त हो जाता है वह भी विकारो से रहित हो सकता है। यदि कोई साधक चाहता है कि मैं अपने स्वाभाविक स्वरूप को उजागर करू, विकार मुक्त हो जाऊँ तो परमात्मा का स्मरण कर वह विकार रहित हो सकता है। कल परसो कर्म सगोष्ठी मे भार्गव साहब ने कहा था कि हमारे जैसे ससारी साधुओ को पूछते हैं क्या आप मे विकार उत्पन्न नही होते है ? उन पूछनेवालो को मै कहता हूँ अरे भाई विकारो की साधुओ मे उत्पत्ति तो होती है पर अभिव्यक्ति नहीं होती। उत्पत्ति होते ही मार देते हैं। अभिव्यक्ति नही होने देते हैं। मै उन्हें आज कहूंगी कि “सम्यगुपलभ्य'-जिस किसी भी साधु को मेरे परमात्मा सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो चुके हैं उनमे विकार उत्पन्न नही हो सकते हैं। जिनकी उत्पत्ति ही नही उनकी अभिव्यक्ति या उन्हें समाप्त करने का प्रश्न ही नही उठता। सासारिक दृष्टिकोण से इस बात को आप नही मानेगे, लेकिन जिसको अनुभूति है वह है और है। इसका कोई निराकरण शायद आपके पास नही हो सकता है। एक बात निश्चित है कि जब बन्दूक मे बारूद या गोली न हो तो उसे कितनी ही बार घुमायी जाय, बजायी जाय पर उससे विस्फोट नहीं हो सकता है। बाहर का कोई भी पदार्थ व्यक्ति मे विकृति पैदा नही कर सकता। विकार हमारी स्वय की कमजोरी से उत्पन्न हो सकते हैं। निर्विकार परमात्मा जिसको सम्यक् उपलभ्य हो जाते हैं उनमे विकार कभी भी प्रवेश नहीं कर सकते। १५ अव कहते हैं-योगीश्वर। इसके दो अर्थ होते हैं- जो योगियो के ईश्वर हैं और जो योग के ईश्वर हैं। परमात्मा तो अयोगी केवली गुणस्थान के बाद आगे बढ़े हैं। कोई योग तो उनके रहे नही है फिर योगीश्वर उन्हें यहा क्यो कहा गया है? कहते हैं परमात्मा आप तो अयोगी हो पर जो योग मे रहते हैं उनकी क्या स्थिति है ? तो कहते हैं अपने योगो का जिन्होंने गोपन किया मतलब मन-वचन और काया की गुप्ति के जो धारक है हे प्रभु। आप उनके ईश्वर हो। १६ तीन गुप्ति के धारक तो साधु-साध्वी होते हैं तो क्या आप उन्ही के परमात्मा हो। इनके अतिरिक्त जो भक्त हैं उनका परमात्मा के साथ कैसे सबध होगा?
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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