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________________ तव ९० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प-कान्ति, विद्योतयज्जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम् ॥१८॥ (भगवन्) -(हे परमात्मा।) -- आपका मुखाब्जम् - मुख-कमल नित्योदयम् - सदा उदय रहनेवाला-रात-दिन उदय रहनेवाला दलितमोहमहान्धकारम् - मोहरूपी महान्धकार को नाश करनेवाला अनल्पकान्ति - अधिक कान्तिवान-अत्यन्त दीप्तिवान न राहुवदनस्य गम्यम् - राहु-ग्रह के मुख मे प्रवेश नही करता न वारिदानाम् गम्यम् - बादलो मे छिप नही सकता है जगत् - सम्पूर्ण विश्व को विद्योतयत् - विशेष रूप से प्रकाशित करता हुआ अपूर्वशशाकबिम्बम् - अलौकिक चन्द्रमण्डल विभ्राजते - शोभा देता है। यह श्लोक गाथा १७ से बहुत कुछ अभिन्न है। वहाँ अस्त नही होने का कहा है, यहाँ नित्य उदित रहने का कहा है। इसी प्रकार अन्य सारी तुलनाएँ समझ लेनी चाहिये। चन्द्र शीतलता का प्रतीक है। सर्वत्र प्रिय है। सहस्रार चक्र मे सिद्धशिला का ध्यान चन्द्र के आकार मे कर सिद्ध परमात्मा से एकरूपता साधी जा सकती है। ग्रीष्म की मौसम मे ऐसा ध्यान करने से पूरे बदन मे शीतलता का अनुभव होता है। _ वैसे ही भक्तामर स्तोत्र मे चन्द्रमा का महत्व अधिक ही रहा है। चन्द्र मन का प्रतीक है। इसी कारण मानसिक विकारो से पीड़ित मानव समाज भक्तामर स्तोत्र के नित्य पारायण से आह्वाद प्राप्त करता है। इन दोनो गाथाओ के समाहार रूप गाथा १९वी हैं। किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा? युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ। निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियज्जलधरैर्जलभारननैः॥१९॥ - हे स्वामिन्। तमस्सु युष्मन्मुखेन्दुदलितेपु - आपके मुख-रूपी चन्द्रमा के द्वारा हर तरह के प्रगाढ़ अन्धकारो को नाश किये जाने पर नाथा
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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