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________________ परिवर्तन ८३ है पाप कर्म, पर उसका फल पुण्य होता है। कितनी विचित्र बात है। यह सारा सक्रमण का सिद्धान्त है। सक्रमण का सिद्धान्त पुरुषार्थ का सिद्धान्त है। ऐसा पुरुषार्थ होता है कि अशुभ शुभ मे और शुभ अशुभ मे बदल जाता है। सक्रमण से कर्म-परमाणुओ मे परिवर्तन किया जा सकता है। सक्रमण का यह सिद्धान्त कर्मवाद की बहुत बड़ी वैज्ञानिक देन है। आज के वैज्ञानिक इस प्रयल मे लगे हुए हैं कि "जीन" को यदि बदला जा सके तो पूरी पीढ़ी का परिवर्तन हो सकता है। सक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है। आधुनिक “जीव विज्ञान" की जो नई वैज्ञानिक धारणाए और मान्यताएँ आ रही हैं, वे इसी सक्रमण सिद्धान्त की प्रतिपादनाए हैं। इस श्लोक मे ५ लकार हैं जो क्रमश लक्ष्य, लगन, लय, लीन और लाभ का प्रतीक है। परमात्म-भक्ति का प्रथम लक्ष्य बनता है, बाद में भक्त की परमात्मा मे लगन लगती है, जहा लगन होती है वहा साधक उस रूप मे लय होता है। लयता लीनता से ही पल्लवित होती है और अन्त मे-लीनता तत्स्वरूप हो जाने का अनन्य लाभ प्राप्त कराती है। __ परिवर्तन के इस महान सिद्धान्त को आचार्यश्री के द्वारा इस गाथा मे प्राप्त कर हम अपने मे एक अपूर्व परिवर्तन कर सके तो भक्तामर स्तोत्र हमारे लिये भी सफल स्तोत्र है। सहज परिवर्तन की दिशा मे प्रगतिशील साधक की लोक पर जो प्रतिक्रिया होती है उसे हम प्रसन्नता के रूप मे देखते हैं। बिना प्रसन्नता के अनुष्ठान निरर्थक है। इसकी सार्थकता अब हम परम-आत्मिक "प्रसन्नता" नामक प्रवचन से सम्पादित करेंगे।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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