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________________ परिवर्तन ७७ विकारमार्गम् - बुरे भाव की ओर, विकार मार्ग की ओर अर्थात् वैभाविक परिणति की ओर न नीतं खीचकर नहीं लाया गया अत्र किम् चित्रम् - तो इसमें आश्चर्य ही क्या है कल्पान्तकाल प्रलयकाल/निर्विकल्प अवस्था चलिताचलेन पर्वतों को चलायमान करनेवाला मरुता - पवन/दूषित वातावरण कदाचित् - कभी भी चलितम् - चलायमान हो सकता है? (अर्थात् कभी नहीं) हे महाप्रभु। कितना अद्भुत है आपका निर्विकार वीतराग स्वरूप। अकाट्य प्रबलतावाली वैषयिक अभिव्यक्तियाँ आपको विचलित नहीं कर पाती हैं क्योंकि आप विषयातीत हैं। ___ इस सृष्टि में ऐसे दो विरुद्ध तत्त्व हैं, जिनका कभी सामजस्य नहीं हो पाता। युगो बीत गये परतु ये लड़ते ही रहे हैं-एक रागभाव और दूसरा विरागभाव। रागी विरागी को विचलित करने के प्रयत्न करता है परन्तु जिसने आत्मा की सहज स्थिति का अनुभव कर लिया उसे रागी विचलित नहीं कर सकता है। हमारे मन में एक प्रश्न हो सकता है, ऐसा क्या है जो वे विचलित नहीं हो सकते हैं? इसका कारण आचार्यश्री ने इस श्लोक में अन्तिम पंक्तियों द्वारा प्रस्तुत किया है। कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ? प्रश्न चिन्ह के साथ उत्तर की विलक्षणता यहा झलकती है। पद चार मे हमने कल्पात काल के उद्धत पवन के विषय में सोचा था, वहां कल्प की विभिन्न व्याख्याएँ आ चुकी हैं। कल्प के अन्त काल मे पवन उद्धत होता है। यहा लिखा है चलित होता है। उद्धत जो भी होगा, निश्चल नहीं रह सकता है, वह चलित होता है और इस चलायमान स्थिति मे वह जिसका भी स्पर्श करता है उसे भी विचलित करता है। सृष्टि में ऐसा कौनसा तत्त्व है जो इस स्थिति में विचलित न हो। यहाँ असामान्य पवन से मेरुपर्वत के शिखर का विचलित न होने का कहा है। जिसका संकेत है कि विकल्पों के द्वारा मन को विचलित करनेवाले विकारी पुद्गल आपके निर्विकार स्वरूप को कैसे कपायमान कर सकते हैं? विस्तार से परमात्मा को मेरुपर्वत की उपमा से विभूषित किया है।' १ सुपगडंग सुतं, श्रुतस्कघ १, अ ६, गाथा १० से १४
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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