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________________ तीन सो ग्यारह सूक्ति कण ८५. सत्त्व, रजस् मोर तमस् - इन तीनो गुणो की साम्य अवस्था ( समान स्थिति) का नाम प्रकृति है । ८६. अवस्तु - अभाव से वस्तुसिद्धि (भाव की उत्पत्ति) नही हो सकती । ८७. जो नरमृग (मनुष्य के सिरपर सोंग) की तरह नसत है, उस की उत्पत्ति नही होती । नाश का अर्थ है - कार्य का अपने उपादान कारण मे लय हो जाना | ८५. ८६. पुरुष ( चैतन्य, मात्मा ) शरीर मादि जड पदार्थों से सर्वतोभावेन पृथक है । ६०. अन्धा मनुष्य देख नही पाता, इस तर्क पर से चक्षुष्मान् ( सुखा) के दर्शन का अपलाप नही किया जा सकता । १. मन उभयात्मक है, अर्थात् श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रिय और हस्तपादादि कर्मेन्द्रिय- दोनो इन्द्रियो का संचालक है । १२. ज्ञान से हो मुक्ति होती है । ६३. विपर्यय ( अज्ञान, विपरीत ज्ञान) हो वन्धका कारण है । ६४. विषयो के प्रति होने वाले राग भाव को दूर करने वाला एक मात्र ध्यान है । ६५. मन का विषयशून्य हो जाना हो - ध्यान है । ६६. चित्त की वृत्तियो का निरोध हो--योग है । ७. चित्त वृत्तियो का निरोध होने पर द्रष्टा ( आत्मा ) अपने स्वरूप में प्रति ष्ठित हो जाता है । "
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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