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________________ मनुस्मृति को सूक्तिया दो सौ इकानवे ६३. धर्म ही मनुष्य का एकमात्र वह सखा है, जो मृत्यु के बाद भी उसके साथ जाता है । अन्य सब कुछ तो शरीर के साथ यहां पर ही नष्ट हो जाता है। ६४ आकार (रोमाञ्चमादि) से, इंगित (इधर उधर देखने) से, गति, चेष्टा, वाणी एव नेत्र और मुख के बदलते हुए भावो से, मन मे रहे हुए विचारो का पता लग सकता है । ६५. सत्य से ही साक्षी (गवाह) पवित्र होता है । सत्य से ही धर्म को अभि वृद्धि होती है। कतंव्याकर्तव्य के निर्णय के लिए आत्मा ही आत्मा का साक्षी है, आत्मा हो मात्मा की गति है । ६७. हर किसी बात पर व्यर्थ ही शपथ नही खानी चाहिए। ६८ पिता के लिए पुत्र आत्म-तुल्य (अपने बराबर) होता है और पुत्री पुत्र तुल्य (पुत्र के समान)। ६६. वस्तुत. राजा हो युग का निर्माता होता है। । ७०. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, गौच (पवित्रता), इन्द्रिय-निग्रह-संक्षेप मे धर्म का यह स्वरूप चारो ही वर्गों के लिए मनु ने कथन किया है । ७१. अच्छे आचरण से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और बुरे आचरण से ब्राह्मण शूद्र ! ७२. अपना वीर्य (सामथ्र्ष) ही सब से श्रेष्ठ बल है । ७३. कृत पाप के लिए सच्चे मन से पश्चात्ताप कर लेने से प्राणी पाप से छूट जाता है। ७४. मनुष्यो और देवताओ के सभी सुखो का मूल तर है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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