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________________ भगवद्गीता को सूक्तियाँ दो सौ इकहत्तर ३३. हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि समिधामो (लकड़ियो) को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानाग्नि सभी कर्मों को भस्म कर डालती है। ३४ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नही है । ३५. ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धावान् होना आवश्यक है और उसके साथ इन्द्रियसंयमी भी। ज्ञान प्राप्त होने पर शीघ्र ही शान्ति की प्राप्ति होती है। ३६. सशयात्मा (सम्देहशील) व्यक्ति नष्ट हो जाता है, अपने परमार्थ लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है। ३७. संशयालु को कभी सुख नही मिलता । ३८. हे महाबाहो अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष रखता है, और न किसी तरह की आकाक्षा रखता है, उसे नित्य सन्यासी ही समझना चाहिए । क्योकि रागद्वेषादि द्वन्द्वो से रहित पुरुष ही सुखपूर्वक संसार-बन्धन से छूट सकता है। ३६. ईश्वर न तो ससार के कर्तव्य का रचयिता है, न कर्मों का रचयिता है, और न वह कर्मफल के सयोग की ही रचना करता है । यह सब तो प्रकृति का अपना स्वभाव ही वत रहा है। ४०. अज्ञान से ज्ञान ढका रहता है, इसी से सब अज्ञानी प्राणी मोह को प्राप्त होते हैं। ४१. जो तत्त्वज्ञानी हैं, वे विद्या एव विनय से युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते तथा चाण्डाल मे सर्वत्र समदर्शी ही होते हैं, भेदबुद्धि नही रखते । ४२. जिनका मन समभाव में स्थित है, उन्होने यहां जीते-जी ही संसार को जीत लिया है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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