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________________ उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया दो सो पच्चीस १४८. योग मे प्रवृत्ति करने का पहला फल यही होता है कि योगी का शरीर हलका हो जाता है, नीरोग हो जाता है, विपयो को लालसा मिट जाती है, कान्ति बढ जाती है, स्वर मधुर हो जाता है. शरीर से सुगन्ध निकलने लगता है, और मल मूत्र अल्प हो जाता है । १४६. देहो- अर्थात् जिसने देह को ही सब कुछ मान रखा है, वह तो इस नो द्वारो वाली नगरी (शरीर) में रहता है । और जो हस है, अर्थात् नीर क्षीरविवेकी हस की तरह जड चैतन्य का विवेक (भेदविज्ञान) पा गया है, वह देह के बन्धन से बाहर प्रकाशमान होता है । १५० वह परम चैतन्य विना पांवो के भी बड़ी शीघ्रता से चलता है, बिना हाथो के झट से पकड़ लेता है, विना आंखो के देखता है, और बिना कानो के सुनता है। १५१. अविद्या क्षर है, खर जाने वाली है, और विद्या अमृत है- अक्षर है, न खरने वाली है। १५२. यदि बाल (केश) के अगले हिस्से के सौ भाग (खण्ड) किये जाएं, उन मो मे से भी फिर एक भाग के सौ भाग किये जाएं, तो उतना सूक्ष्म जीव को समझना चाहिए , परन्तु इतना सूक्ष्म होते हुए भी वह अनन्त है, मनन्तशक्तिसपन्न है। १५३. जीवात्मा न स्त्री है, न पुरुष है, न न पु सक है । ये सब लिंग शरीर के हैं, मत जिस जिस गरीर को यह आत्मा ग्रहण करता है, तदनुसार उसी लिंग से युक्त हो जाता है । १५४. मनुष्य जब भी कभी चमं से प्राकाण को लपेट सकेंगे, तभी परमचैतन्य आत्मदेव को जाने बिना भी दुख का अन्त हो सकेगा , अर्थात् चमडे से अनन्त आकाश का लपेटा जाना जैसे असम्भव है, वैसे ही आत्मा को जाने-पहचाने विना दुख से छुटकारा होना भी असंभव है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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