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________________ उपनिषद् साहित्य की मूक्तियो दो सौ सत्रह १०६ जब तक साधक को शरीर के साथ एकत्ववुद्धि बनी रहेगी, सुख दु.ख से नही छूट सकेगा। अपने शरीररूप मे, देहातीत आत्मभाव मे आने पर साधक को सुख दुःख छू भी नहीं सकते । ११०. मन आत्मा का देव चक्षु है, दिव्य नेत्र है । (मन के द्वारा ही आत्मा आगे-पीछे, मूत-भविष्यत् सब देखता है ।) १११. वस्तुतः अशनाया (मूख) ही मृत्यु है। ११२. यथोचित श्रम तथा तप करने पर हो यश एव बल का उदय होता ११३ सृपि के प्रारम्भ मे वह (ईश्वर, ब्रह्म) अकेला था, इसलिए उसका जी नही लगा, अत. उसने दूसरे की इच्छा को । अर्थात् व्यक्ति समाज की रचना के लिए प्रस्तुत हुआ। ११४. स्त्री और पुरुष दोनो मूल मे सपृक्त हैं, एकमेक हैं। ईश्वर ने अपने आपको दो खण्डो (टुकडो) मे विभाजित किया। वे ही दो खण्ड परस्पर पति और पत्नी होगए। ११५ जो अपने आत्मा की ही प्रिय रूप मे उपासना करता है, उसके लिए कोई भी नश्वर वस्तु प्रिय नहीं होती। ११६ जो यह जानता है कि 'मैं ब्रह्म हूँ'--'मैं क्षुद्र नही, महान् हूँ-वह सब कुछ हो जाता है, देवता भी उसके ऐश्वर्य को रोक नही पाते । ११७. जो अपने से अन्य भिन्न देवता की उपासना करता है, अर्थात्-वह अन्य है, मै अन्य हूँ, इस प्रकार क्षुद्र भेद दृष्टि रखता है, वह नासमझ है, वह मानो देवो के सामने पशुसदृश है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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