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________________ आरण्यक साहित्य को सूक्तिया एक सौ इक्यासी ४६. जिस प्रकार सुपुष्पित वृक्ष को सुगन्ध दूर-दूर तक फैल जाती है, उसी प्रकार पुण्य कर्म को सुगन्ध भी दूर-दूर तक फैल जाती है। ४७. तू विश्वरूप है, सर्वरूप है, अर्थात् तू कोई क्षुद्र इकाई नही है । ४८. मुझे ब्रह्मत्व प्राप्त हो, मुझे परमानन्दस्वरूप माधुर्य प्राप्त हो। ४६ में ज्योतिःस्वरूप परब्रह्म हूँ, अतः मुझे पाप एव रजोगुण से रहित होना है। ५०. सत्य श्रेष्ठ है, एवं श्रेष्ठ सत्य है । सत्य का आचरण करने वाले कभी स्वर्ग लोक से च्युत नही होते । ५१ अनशन से बढकर कोई तप नहीं है, साधारण साधक के लिए यह परम तप दुर्घपं है, दुराधपं है अर्थात् सहन करना बडा ही कठिन है । ५२. सभी प्राणी दान की प्रशसा करते हैं, दान से बढकर अन्य कुछ दुर्लभ नहीं है। ५३. धर्म से ही समग्र विश्व परिगृहीत-आवेष्टित है । धर्म से बढकर अन्य कुछ दुश्चर नही है। ५४. विद्वान् मानस-उपासना (साधना) को ही श्रेष्ठ मानते हैं, इसलिए विद्वान् मानस उपासना में ही रमण करते हैं । ५५. सत्य वाणी की प्रतिष्ठा है, सत्य में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है । ५६. दान से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, दान में सब कुछ प्रतिष्ठित है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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