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________________ यजुर्वेद की सूक्तियां पिचहतर १५. तेरे मन, वाणी, प्राण, चक्षु एवं श्रोत्र सब शान्त तथा निर्दोष हो । १६. जो भी तेरा क्रूर कर्म है, अशान्त भाव है, वह सब शान्त हो जाए । १७. तेरा धूम (कर्म की ख्याति) स्वर्ग लोक तक पहुँच जाए और ज्योति तेज अन्तरिक्ष तक। १८. तुम भयभीत तथा चचल न बनो । अपने अन्तर मे ऊर्जा (स्फूर्ति एव शक्ति) धारण करो। १६. तू स्वय देव होकर देवो के लिए प्रवृत्ति कर । २०. तू स्वयं कृत है, अर्थात् स्वयं उत्पन्न होने वाला स्वयमू है । २१. हे वीर | तू विश्व मे वीरो का निर्माण करता चल । २२. यह विश्व को वरण करने वाली श्रेष्ठ संस्कृति है। २३. कामना ही देने वाली है, कामना ही ग्रहण करने वाली है । २४. हे इन्द्र ! तू कभी भी कर (हिंसक) नही होता है अर्थात् सदा सौम्य रहता है। २५. मैं विश्व के ऊपर भी हूँ, नीचे भी हूँ। अर्थात् मैं पुण्य कर्म से ऊँचा होता हूँ, तो पाप कर्म से नीचा हो जाता हूँ। स्वयमुत्पन्नोऽसि-उन्वट । ४. स्तरीहिंसको नासि-महीधर ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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