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________________ ऋग्वेद की सूक्तिया पेंतालीस २०४. हे मित्रो । अश्मन्वती (पत्यरो से भरी नदी) बह रही है, दृढता से तनकर खडे हो जाओ, ठीक प्रयत्न करो और इसे लाघ जाओ। २०५. हम सुपथ से कुपथ की अोर न जाए। २०६. जीवन मे चिरकाल तक सूर्य (प्रकाश) के दर्शन करते रहो । २०७. हे वन्धु । तुम्हारा मन, जो चारो मोर अत्यन्त दूरस्थ प्रदेश मे भटक गया है, उसे हम लौटा लाते हैं। इसलिए कि तुम जगत मे निवास करने के लिए चिरकाल तक जीवित रहो । २०८. हे वन्धु | तुम्हारा जो मन, भूत वा भविष्यत् के किसी दूर स्थान पर चला गया है, उसे हम लोटा लाते हैं । इसलिए कि तुम जगत मे निवास करने के लिए चिरकाल तक जीवित रहो । २०६. हम नित्यप्रति उदय होते हुए सूर्य को देखें, अर्थात् चिरकाल तक जीवित रहें। २१०. हमारी वृद्धावस्था दिन प्रतिदिन सुखमय हो । २११ यह मेरा हाथ भगवान् (भाग्यशाली) है, भगवान ही क्या, अपितु भगवत्तर है, विशेष भाग्यशाली है। यह मेरा हाथ विश्व के लिए भेषज है, इसके स्पर्शमात्र से सब का कल्याण होता है । २१२. विश्व के ये देव (दिव्य शक्तिया) मेरे हैं, मैं सब कुछ हूँ। २१३. सावणि मनु का दान, नदी के समान दूर दूर तक विस्तृत (प्रवाहित) है। चीनान्मार्गात् । ५. चिरकालम् । ६ आवतंयामः। ७. इह लोके निवासाय । ८, चिरकालजीवनाय । ६. भाग्यवान् ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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