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________________ ऋग्वेद को सूक्तिया सत्ताईस ११५ हम सदा सुखी एवं शान्त मन से रहे । ११६. मनुष्य, मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करे । ११७. हे अग्नि देव । हम परिवार से रहित सूने घर मे न रहे, और न । दूसरो के घर मे रहे। ११८ हमारे यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) को ऊर्ध्वमुखी बनाइए । ११६. ऋण रहित व्यक्ति के पास पर्याप्त धन रहता है । १२०. मूर्ख के मार्ग का अनुसरण नही करना चाहिए । १२१. हे देव । आर्य (कर्मनिष्ठ) जन को अधिकाधिक ज्योति प्रदान करो । और दस्युओ (निष्कर्मण्यो) को दूर खदेड़ दो। १२२. श्रेष्ठ जन अपने पालन करने वाले के उपकार को नहीं भूलते हैं । १२३. शिश्न देव (व्यभिचारी) सत्कर्म एव सत्य को नही पा सकते । १२४. हमारी बुद्धि और धन शान्ति के लिए हो । १२५. हम अव वर्तमान मे भगवान (महान्) हो, दिन के प्रारम्भ मे और मध्य मे भी भगवान् हो । ११. अब्रह्मचर्या. । १२. शान्त्य । १३. बहुधी.। १४ प्रपित्वे अह्ना प्राप्ते पूर्वाह्न।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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