SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋग्वेद की सूक्तिया ग्यारह ३५. कर्तव्य के लिए पुकार होने पर तुम सबके अग्रगामी बनो, पृथिवी मौर आकाश से भी अधिक विराट् बनो । ३६. दोनो वहनी (रात्रि और उपा) का मार्ग - ( आकाश ) एक है । (आध्यात्म पक्ष मे पाप और पुण्य की वृत्तियो का पथ मानवमन एक है ।) ३७. अज्ञानी व्यक्ति कैसे साधना कर सकता है ? ३८. ३६ ४०. ४१. ४२. प्रात. काल का स्वप्न और अपनी सम्पत्ति का जनकल्याण के लिए उचित उपयोग न करने वाला धनिक, दोनो ही से मैं सिन्न हूँ । क्योकि ये दोनो शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । हमारे मुख से प्रिय एव सत्य वाणी मुखरित हो, हमारी प्रज्ञा उन्मुखप्रबुद्ध हो, सत्कर्म के लिए हमारा अत्यन्त दीप्यमान तेजस्तत्व (सकल्प बल) पूर्ण रूपेण प्रज्वलित हो । रात पीछे लौट रही है, दिन सामने प्रारहा है । एक के हटने पर दूसरा नाता है । विभिन्न एव विलक्षण रूप वाले दोनो दिन और रात व्यवधानरहित होकर चलते हैं । इनमे एक (रात्रि ) सब पदार्थों को छिपाता है और दूसरा (उषा) अपने अतीव दीप्तिमान रथ के द्वारा उन्हे प्रकट करता है । उषा जैसी (निर्मल) आज है, वैसी ही कल थी, गोर कल होगी । दानशील व्यक्ति प्रात काल होते ही एक से एक उत्तम वस्तुओ ( रत्नो) का दान करता है | ४३. जनता को परितृप्त करने वाला दानी स्वर्ग के देवताओ मे प्रमुख स्थान प्राप्त करता है । ६. उ शब्दोऽपिशब्दार्थ, इच्छन्द एवार्थः ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy