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________________ सुत्तनिपात की सूक्तिया सत्तासी १७. सत्य ने कीर्ति प्राप्त होती है, और सहयोग (दान) ने मित्र अपनाए जाते हैं । २८. जिन श्रद्धाशील गृहस्थ में सत्य, धर्म, घृति और त्याग ये चार धर्म हैं, उसे परलोक मे पछताना नहीं पड़ता । २६. जो न स्वय चिटता है और न दूसरो को चिढाता है, उसे ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं । ३०. जो अपने मित्रो से बेकार की मीठी-मीठी बातें करता है, किन्तु अपने कहे हुए वचनो को पूरा नही करता है, ज्ञानी पुरुष उस मित्र की निदा करते हैं । ३९. वही सच्चा मित्र है, जो दूसरो के बहकावे मे आकर फूट का शिकार न बने । ३२ धर्मप्रीति का रस पान कर मनुष्य निर्भय और निष्पाप हो जाता है । ३३ माता, पिता, भाई एवं दूसरे ज्ञातिबन्धुओ की तरह गाये भी हमारी परम मित्र है, जिनसे कि औपधियाँ उत्पन्न होती हैं । ३४. पहले केवल तीन रोग थे- इच्छा, भूख और जरा । पशुवध प्रारम्भ होने पर अट्ठानवें रोग हो गए । ३५ जो मनुष्य तेज वहने वाली विशाल नदी मे धारा के साथ वह रहा है, वह दूसरो को किस प्रकार पार उतार सकता है ? ( इसी प्रकार जो स्वय शकाग्रस्त है, वह धर्म के सम्बन्ध मे दूसरो को क्या सिखापाएगा २) ३६ ज्ञान सदुपदेशो का सार है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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