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________________ सुत्तनिपात को सूक्तियां तिरासी ५ शब्द से त्रस्त न होने वाले सिंह, जाल मे न फंसने वाले वायु, एवं जल से लिप्त न होने वाले कमल के समान अनासक्त भाव मे अकेला विचरे, खड्गविपाण (गेंडे के सीग) की तरह । ६. आजकल निस्वार्य मित्र दुर्लभ हैं । ७ श्रद्धा मेरा वीज है, तप मेरी वर्षा है । ८ धर्मोपदेश करने से प्राप्त भोजन मेरे (धर्मोपदेप्टा के) योग्य नहीं है । ६. धर्मप्रेमी उन्नति को प्राप्त होता है और धर्मदपी अवनति को। १०. जो मनुष्य निद्रालु है, सभी-भीडभाड एव धूमघाम पसन्द करता है, अनुद्योगी है, आलसी है और क्रोधी है, वह अवश्य ही अवनति को प्राप्त होता है। ११. जो व्यक्ति अकेला ही स्वादिष्ट भोजन करता है, वह उसकी अवनति का कारण है। १२. जो मनुष्य अपने जाति, धन और गोत्र का गर्व करता है, अपने ज्ञाति जनो का,-बन्धु वाधवो का अपमान करता है, वह उसकी अवनति का कारण है। १३ जिसे प्राणियो के प्रति दया नही है, उसी को वृषल (शूद्र) समझना चाहिए। १४. जो अर्थ (लाम) की वात पूछने पर अनर्थ (हानि) की बात बताता है, और वास्तविकता को छुपाने के लिए घुमा-फिराकर बात करता है, उसे ही वृपल (शूद्र) समझना चाहिए ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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