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________________ संयुत्तनिकाय की सूक्तियां इकत्तीस ४३. साधक अपने को न दे डाले, अपने को न छोड़ दे। ४४. वृष्टि आलसी और उद्योगी-दोनो का ही पोपण करती है. माता जैसे पुत्र का। ४५. कृतकृत्य (जो अपने कर्तव्य को पूरा कर चुका हो) ही ब्राह्मण होता है। ४६. आर्यों के लिए सभी मार्ग सम हैं, आयं विषम स्थिति मे भी सम रहते हैं। ४८. ४७. यदि कोई कार्य करने जैसा है तो उसे दृढता के साथ कर लेना चाहिए । जो साधक अपने उद्देश्य मे शिथिल है वह अपने ऊपर और भी अधिक मंल चढा लेता है। बुरी तरह करने से न करना अच्छा है, बुरी तरह करने से पछताना पड़ता है । जो करने जैसा हो उसे अच्छी तरह करना ही अच्छा है, अच्छी तरह करने पर पीछे पछतावा नही होता। ४६. अच्छी तरह न पकडा हुआ कुश हाथ को ही काट डालता है। ५०. सत्पुरुषो का धर्म कभी पुराना नही होता । ५१. जिस को अपनी आत्मा प्रिय है, वह अपने को पाप मे न लगाए । ५२. मनुष्य यहां जो भी पाप और पुण्य करता है, वही उसका वपना होता है । उसे ही लेकर परलोक मे जाता है। ५३. मारने वाले को मारने वाला मिलता है, जीतने वाले को जीतने वासा । ५४. हे राजन् ! कुछ स्त्रियाँ पुरुषो से भी बढ़कर होती हैं ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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