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________________ सूक्ति कण दो सौ सेंतीस ४६. जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वस्तुत वही भ्रष्ट है, पतित है। क्योकि दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्त नहीं होता । ५० जैसे वदर क्षण भर भी शात होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी सकल्प विकल्प से क्षण भर के लिए भी शात नहीं होता । ५१ अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है । ५२. किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत अपनी ही हत्या है, और अन्य जीव की दया अपनी ही दया है । ५३. अगीतार्थ=अज्ञानी के कहने से अमृत भी नहीं पीना चाहिए। ५४ जिस किसी भी क्रिया से वैराग्य की जागृति होती हो, उसका पूर्ण श्रद्धा के साथ आचरण करना चाहिए । ५५. वही अनशन तप श्रेष्ठ है जिस से कि मन अमगल न सोचे, इन्द्रियो की हानि न हो और नित्यप्रति की योग-धर्म क्रियाओ मे विघ्न न आए। ५६. इससे बढकर मनोहर, सु दर और आश्चर्यकारक क्या होगा कि लोग बहुश्रु त के मुख को चन्द्र-दर्शन की तरह देखते रहते है । ५७ ज्ञान और चारित्र-इन दोनो की साधना से ही दु ख का क्षय होता है। ५८. अर्थ अनर्थों का मूल है । ५६ जैसे कि जीवितार्थी के लिए विष हित कर नहीं होता, वैसे ही कल्याणा र्थी के लिए पाप हितकर नही है । ६०. ज्ञान की लगाम से नियत्रित होने पर अपनी इन्द्रिया भी उसी प्रकार लाभकारी हो जाती हैं, जिस प्रकार लगाम से नियत्रित तेज दौड़ने वाला घोड़ा।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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