SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो सौ छत्तीस सूक्ति त्रिवेणी ४६. दसणभट्ठो भट्ठो, दंसरणभट्ठस्स नत्थि निव्वाण। -भक्तपरिज्ञा ६६ ५०. जह मक्कडयो खणमवि, मज्झत्थो अच्छिउन सक्केइ । तह खरगमवि मज्झत्थो, विसएहिं विणा न होइ मरणो। -भक्त० ८४ ५१. धम्ममहिंसासम नत्थि । -भक्त०६१ ५२. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । -भक्त० ६३ ५३. अगीप्रत्यस्स वयणेणं, अमयंपि न घुटए । -~गच्छाचार ४६ ५४. जेण विरागो जायइ, त तं सव्वायरेण कायव्व । -महाप्रत्याख्यान १०६ ५५ सो नाम अगसगतवो, जेण मरणो मगुलं न चितेइ । जेण न इ दियहाणी, जेण य जोगा न हायति ॥ -मरणसमाधि १३४ ५६ कि इत्तो लठ्ठयर अच्छेरयय व सुदरतरं वा ? चंदमिव सबलोगा, बहुस्सुयमुह पलोयति । मरण० १४४ ५७. नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्खक्खय होइ । -मरण० १४७ ५८. अत्यो मूल अगत्थारण । --मरण० ६०३ ५६. न हु पाव हवइ हिय, विस जहा जोवियत्थिस्स । -मरण० ६१३ ६०. हुति गुणकारगाई, सुयरज्जूहिं धरिणयं नियमियाइ । नियगाणि इ दियाई, जइणो तुरगा इव सुदंता ॥ -मरण० ६२२
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy