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________________ [ ७ ] पाएंगी, जो मीरांके जीवन, काव्यसाधना और भक्तिपक्ष पर अभिनव प्रकाश निक्षेप - करते हुए कितनी ही गवेषणाग्रन्थियोंको सुलझानेमें परम सहायक सिद्ध होंगी। विद्याभूषणंजी एक समर्थ भूमिकालेखक भी थे। अनेक ग्रन्थकार अथवा सम्पादक उनसे भूमिका लिखवाने उपस्थित हुया करते थे। जिस पुस्तक पर वह भूमिका लिखना स्वीकार कर लेते थे, उसमें केवल उपचार निभानेके लिए ही कलम नहीं उठाते थे। अपितु वह उस ग्रन्थको, सम्पादनको, विषयवस्तु और उसके प्राप्त अप्राप्त तथ्योंको प्रचुर मात्रामें संगृहीत कर पूर्ण सूक्ष्मेक्षिकाके पश्चात् कर्तव्य साधने बैठते थे । यही कारण है कि ये भूमिकाएँ इतनी उत्कृष्ट होती थी कि सम्पादक अथवा लेखकका परिश्रम निखर उठता था। काशी ....... नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित व्रजनिधिग्रन्थावली और दादू, कविया, गोपाल, सुन्दरदास और रघुनाथरूपक गीतांरो तथा बांकीदास पर इस प्रकारके सम्पादन और लेखनकी पुष्ट-प्रौढ छाप देखी जा सकती है । - नागरीप्रचारिणी सभा, काशीके वह आजीवन सदस्य और प्रमुख स्तम्भोंमेंसे अन्यतमः थे। विद्याभूषण तो वह थे ही, विनयभूषण भी प्रथम कोटि के थे । उनका अकृत्रिम सारल्य, बालकके समान निष्कलुष एवं निरुपचार था। धर्म और सत्यके प्रति अटल निष्ठा, सदाचारका पालन, स्वार्थत्याग, सहिष्णुता एवं विचारस्थैर्य आदि गुणसमूहोंने उन्हें अपना एकमात्र आश्रय मान लिया था और वह स्वयं भी इन गुणपुंजोंमें इतने तदाकार हो गये थे कि गुण और गुणीका पार्थक्य देख पाना वज्र कपाटोंकी सन्धिकील उखाड़ना था। इतने दिव्य, भव्य, धीर और विद्वान् होते हुए भी वह मानासक्ति और आत्मविज्ञापनके पंकसे कवीरकी चादरके समान अस्पष्ट थे । 'दास कबीर जतन से अोढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया के वह उपमान थे। एक उदाहरण इस प्रसंग में उपादेय होगा। काशी नागरीप्रचारिणी सभाने विद्याभूषणजीको उनके ७५वें वर्ष पर्व पर सम्मानित करना निश्चित किया । सभाके लिए ऐसा आयोजन करना उचित ... . . ही था। मित्र परिचितोंको भी यह जान कर हर्ष होना स्वाभाविक कहा जाना .. चाहिए । उमंग भरे डाक्टर पीताम्बरदत्त बडथ्वालने समयसे कुछ पूर्व ही विद्या भूषणजीको पत्र द्वारा इसकी सूचना पहुँचा दी । बस, पुरोहितजी का सरल, निरभिमान हृदय इस मानभरे प्रायोजनके तुमुलचिन्तनसे विचलित हो उठा। जहां ऐसे अवसरको प्राप्तिके लिए अन्य उत्कंठित रहते हैं, वहां विद्याभूषणजीको हृत्क्रम्पी अधैर्यने घेर लिया। भला, सरस्वतीके एकान्तमन्दिरमें उपासनालीन पुजारीको यह विघ्न कैसे रुचिकर होता और कैसे वह इस औपचारिकताके पीछे पाता, जाता, लेता, देता रहता ?
SR No.010606
Book TitleVidyabhushan Granth Sangraha Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopalnarayan Bahura, Lakshminarayan Goswami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1961
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationCatalogue
File Size9 MB
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