SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चचता ही नहीं, न य और न ज्ञाता, केवल जान ही रह जाता है। इस अवस्था में चित्तवृत्तिया तो रहती ही नहीं है, वे निन्द्र हो जाती है, अत केवल प्रात्मानुभूति ही शेष रह जाती है, इसीलिये अनेक विचारक योग को विचार न कह कर अनुभूति कहते हैं। योग उस आध्यात्मिक प्रक्रिया को भी कहा जा सकता है जो योग को तोड देती है। केवल एक को रहने देती है। जैसे यदि कोई व्यक्ति धन को पाना चाहता है तो उसे लोभ कहा जाता है, लोभी का ध्यान सदा धन पर रहता है। यदि कोई त्यागी वन को त्यागना चाहता है तो उसका ध्यान भी धन पर ही केन्द्रित रहता है, वह सदा अप्रमत्त भाव से धन से बचने की कोशिश करता रहता है । लोभी और त्यागी दोनो का ध्येय धन ही है। युद्ध-भूमि में योद्धा का ध्यान गत्र पर ही रहता है, त्यागी धन को शत्रु समझता है, अत उमसे बचने के लिये वह उस पर ही सावधानी से निगाह रखता है। योग के लिये निर्लोभता और त्याग (अलोभ और सवेग) शब्दो के प्रयोग का यही तात्पर्य है। योग लोभी के मन और धन के योग को समाप्त कर देता है। सच्चा योगी संचय और त्याग दोनो से मुक्त होकर स्व-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। इसी को योगदर्शन मे सयम. कहा गया है । सयम मे ध्याता व्यान और व्येय की त्रिपुटी एक हो जाता है, धारणा ध्यान और समाधि मे एक रूपता हो जाती है (त्रयमेकत्र सयम. ३।४), वस्तृत पतञ्जलि का योग-दर्शन जैन सस्कृति में प्रतिपादित चौदह ] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy