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________________ के कार्य-व्यापार को और काया के व्यापार को इस प्रकार अप्रमत्त होकर करना चाहिये जिससे कि उनके द्वारा पापकर्म मे प्रवृत्ति न हो सके। यही तो कर्म की कुशलता है। अत "कर्म कौशल" योग के इस अर्थ पर भी जैनत्व की छाप स्पष्ट है। पतंजलि के योगदर्शन पर जैनत्व की छाप पतञ्जलि का चित्तवृत्तिनिरोध भी अन्तत. समाधिरूप ही तो है, क्योकि चित्तवृत्तियो के निरुद्ध होने पर. अन्तत चित्त देश विगेप मे वध जाता है, यही तो पतञ्जलि की धारणा है (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा-३११) उस देश विशेप मे जब चित्त ध्येयमात्र पर स्थिर हो जाता है, तब उसे ध्यान कहा जाता है (तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् ३।२) और जब ध्यान ही ध्येय के रूप मे भासित होने लगता है उसे समाधि कहा जाता है (तदेवार्थमात्रनिर्भास समाधि ३१३) यह समाधि भी जैन दर्शन मे योग सजा प्राप्त करती है, अत समाधि को भी बत्तीस योगो मे स्थान दिया गया है। योग शब्द का अर्थ "जोड" सर्व मान्य है। इस अर्थ की दृष्टि से यदि योग को जाना जाय तो हम कह सकते है कि योग के लिये दो का होना आवश्यक है, एक मे योग नही हो सकता, योग दो की ही अपेक्षा करता है। योग वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा चिन वृनियो को 'मन के व्यापारो को और शारीरिक चेष्टायो को बाहर से तोड कर आत्मा के साथ जोडा जाता है, इधर से तोडना और उधर जोडना योग का प्रधानतम लक्ष्य है। योग नीचे को छोड़ कर ऊपर से जोडता है, उस अवस्था मे पहुचा देता है जहा केवल ज्ञान मात्र गेप रह जाता है और कुछ योग 1 एक चिन्तन ] [ तेरह
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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