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________________ महि जाता, चीचाता महळां, श्रे दुय मरण-तणा अवसाण । राखो रे कीहिक रजपूती, मरद हिंदू की मस्सळमान ।। पुर जोधाण, उदैपुर, जैपुर, पहु थारा खूटा परियारण । आर्क गयी आवसी प्रांक, वाकै प्रासल किया वखाण ॥ [अग्रेज देश पर चढकर आया । उसने (सवके) पराक्रमो को खीच लिया 1 पृथ्वी के स्वामियो ने मरकर पृथ्वी को नही दिया । पृथ्वी तो उनके खडे-खडे ही, उनके जीते-जी ही (अग्रेज के अधिकार में) चली गई । अग्रेज की फौजो को देखकर किसी ने फौजें नहीं सजायी। शत्रुओ को टूक-टूक नही किया। विधवा स्त्री पूर्वपति के चुडे को फोडकर दूसरे के घर जाती है, पर यह पृथ्वी, पूर्व-पतियो के जो पूरे चूडे पहने हुए थी, उन्ही चूडो के साथ अग्रेज के घर गई। राजानो को इसका दुख नही लगा। गढपतियो की पृथ्वी गुम हो गई। सस्या में वहुत होते हुए भी ये वेचारे बने रहे, जरा भी वल नही दिखाया। उनके देखते-देखते पृथ्वी चली गई। मराठा दो-चार मास लडा तो सही। उसकी ममि भी चली गई। पर यह तो भावी का लेख था । पर उसने दासता तो नही स्वीकार की और न अपने हाथो अपना मराठा देश अग्रेजो को सौंपा। भरतपुर का राजा भी अच्छा लडा। तोपो की गर्जना हुई जिसकी धूम आकाश और पृथ्वी में छा गई। पहले अग्रेज का सिर कटकर गिरा फिर उसका कटा। वीर ने खडे-खडे, जीते-जी, अपनी भूमि नही दी। भूमि जा रही हो या कोई स्त्री सकट में चिल्ला रही हो- मरने के लिये ये दो अवसर है । अरे हिन्दू अथवा मुसलमान कोई तो मर्द बनो और राजपूती की रक्षा करो। हे जोवपुर, उदयपुर और जयपुर के स्वामियो । तुम्हारा वश समाप्त हुआ । भाग्य के अंको (लेख) से गई हुई यह भूमि अब भाग्य के अको से ही वापिस आवेगी (तुम्हारे बल पर नही) । आसिया वाकीदास ने यह ठीक बात कही है । ] वाकीदास आशुकवि होने के साथ साथ अनेक भापायो के ज्ञाता भी थे। राजस्थानी, ब्रजभाषा, संस्कृत और फारसी के वे अच्छे विद्वान थे । इतिहास में उनको बडी रुचि थी । वे इतिहास-सम्बन्धी विपयो का निरन्तर सग्रह करते रहते थे। 'वाकीदास-री ख्यात' उनके इसी इतिहास-प्रेम का फल है। ___ एक वार ईरान का एक शाही सरदार भारतवर्ष की सैर करता हुआ जोधपुर पहुंचा। उसके साय भारत सरकार का एक मुशी भी था। उस सरदार ने जोधपुर नरेश से अर्ज परवाई कि आपके यहा इतिहास का अच्छा विद्वान हो तो मैं उससे मिलना चाहता हूँ। महाराजा ने वाकीदान को उनके पास भेजा। सरदार उनमे बातचीत करके वडा प्रसन्न हुआ। उसने महाराजा को कहलवाया कि इतिहास का ऐसा विद्वान मेरी दृष्टि में दूसरा नही पाया; ईरान मेरो जन्मभूमि है, परन्तु ईरान के इतिहास का ज्ञान इनको मुझसे भी अधिक है।
SR No.010598
Book TitleBankidasri Khyat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1956
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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