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________________ ४६ सर्वतोमुखो व्यक्तित्व जिस प्रकार सरल और वक मार्ग से प्रवाहित होने वाली भिन्नभिन्न नदियाँ अन्त में एक ही महासागर में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न रुचियों के कारण उद्भव होने वाले समस्त दर्शन एक ही अखण्ड सत्य में अन्तभुक्त हो जाते हैं। उपाध्याय यशोविजय भी इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण को लेकर अपने ग्रन्थ 'ज्ञान-सार' में एक परम सत्य का संदर्शन कराते हुए कहते हैं "विभिन्ना अपि पन्थानः, ___समुद्र सरितामिव ।। मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥" हां, तो मैं आपसे कह रहा था, कि जो समन्वयवादी हैं, वे सर्वत्र सत्य को देखते हैं। एकत्व में अनेकत्व देखना और अनेकत्व में एकत्व देखना-यही समन्वयवाद है, स्याहाद सिद्धान्त है, विचार-पद्धति है, अनेकान्त-दृष्टि है। वस्तु-तत्त्व के निर्णय में मध्यस्थ-भाव रख कर ही चलना चाहिए। मताग्रह से कभी सत्य का निर्णय नहीं हो सकता । समन्वय-दृष्टि मिल जाने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि परिमित शादों के बारटन से भी कोई लाभ नहीं। स्याद्वादी व्यक्ति सहिष्णु होता है। वह राग-द्वेष की आग में झुलसता नहीं, सव धर्मों के सत्य तत्त्व को आदर भावना से देखता है । विरोधों को सदा उपशमित करता रहता है । आध्याय यशोविजय जी कहते हैं "स्वागमं रागमात्रेण, दुषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा ।" हम अपने सिद्धान्त ग्रन्थों का-यदि वे बुरे हों, तो इसलिए आदर नहीं करेंगे, कि वे हमारे हैं । दूसरों के सिद्धान्त-यदि वे निर्दोष हों, तो इसलिए परित्याग नहीं करेंगे कि वे दूसरों के हैं । समभाव और सहिष्णुता की दृष्टि से, जो भी तत्त्व जीवन-मंगल के लिए उपयोगी होगा, उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे और जो उपयोगी नहीं है, उसे छोड़ने में जरा
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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