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________________ सर्वतोमुखी व्यक्तित्व मनुष्य के वहिर्मुखी जीवन का यही चरम विकास है। परन्तु; यह भूलने की बात नहीं है, कि मानव-जीवन का एक दूसरा भी पक्ष है, जिसे हम अन्तर्मुखी जीवन कह सकते हैं। भोग के चरम विकास में से ही योग का प्रादुर्भाव होता है। मनुष्य बहिमुखी से अन्तर्मुखी . वना। वह फिर ग्राम-नगरों के कोलाहल से व्याकुल होकर प्रकृति माता की एकान्त एवं शान्त गोद में अपने अन्तःसुख की शोध में निकल पड़ा। अन्तःसुख की शोध में, तपने वाली इन हुतात्माओं . को शास्त्र की भाषा में साधक, भिक्षु और तपस्वी कहा गया ! - ऋषभदेव से लेकर अन्तिम वर्धमान महावीर ने मानव-जगत् को एक नया विचार एवं नया दृष्टिकोण दिया-"जो कुछ भी. पाना है, उसे अपने अन्तर में खोजो।" यह अनुभव-प्रसूत पवित्र वाणी हजारों . हजार और लाखों-लाख साधकों के लिए सर्च-लाइट बन गई। ... ... .. साधक भी सब समान नहीं होते। दुर्बलता मनुष्य का बहुतं देर तक और साथ ही वहुत दूर तक भी पीछा करती रहती है। .: . दुर्वल साधकों को सम्बल देने के लिए 'संघ' का निर्माण हुआ। मानव जाति के विकास के इतिहास का यह चतुर्थ चरण था। संघ का अर्थ . है-अध्यात्म-साधना करने वाले पवित्र व्यक्तियों का एक समाज, एक वर्ग-विशेष। ...... ...... . . . . संघ में सभी प्रकार के साधक आते थे। लधु भी, महान् भी, छोटे भी, बड़े भी, सवल भो, निर्बल भी। बहुश्रुत भी, अल्पज्ञ भी। संघ में मर्यादा, व्यवस्था और सन्तुलन रखने के लिए एक नेता की आवश्यकता पड़ी, जो संघ को सही दिशा में एवं सुमार्ग पर ले जा सके। संघ-नेता को शास्त्रीय परिभाषा में प्राचार्य कहा गया। प्राचार्य संघ का नेता बना, शास्ता बना, पथ-प्रदर्शक वना। . . . . . .. राजनीतिक शासन की अपेक्षा धर्म-शासन में. एक भिन्न प्रकार की शासन-बद्धता रहती है, जिसका आधार कठोरता नहीं, कोमलता है । जिसका अाधार विचारों का दमन नहीं, अपितु दुर्वृत्तियों का शमन है। संघ का शास्ता प्राचार्य शासन अश्वय करता है, पर कब? जब कि सामान्य साधक साधना-पथ पर चलता हुआ लड़खड़ाने लगे, - तव ! दुर्बल साधकों के लिए ही प्राचार्य के शासन की आवश्यकता
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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