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________________ जय वीराय । भावार्थ-हे वीतराग ! यद्यपि तेरे सिद्धान्त में नियाणा करने की अर्थात् फल की चाह रखकर क्रिया अनुष्ठान करने की मनाही है तो भी मैं उसको करता हूँ; और कुछ भी नहीं, पर तेरे चरणों की सेवा प्रति जन्म में मिले-----यहो मेरो एक मात्र अभिलाषा है ॥ ३ ॥ * दुक्खखओ कम्मखओ, समाहिमरणं च बोहिलाभो । ___ संपज्जउ मह एअं, तुह नाह ! पगामकरणेणं ॥४॥ अन्वयार्थ --- 'नाह' हे नाथ! 'तुह' तुझको ‘पणामकरणेणं' प्रणाम करने से 'दुक्खखओ दुःख का क्षय, 'कम्मखओ' कर्म का क्षय, 'समाहिमरणं' समाधि-मरण 'च' और 'बोहिलाभो अ सम्यक्त्व का लाभ 'ए' यह [ सब ] 'मह' मुझको 'संपज्ज प्राप्त हो ॥४॥ ___ भावार्थ-हे स्वामिन् ! तुझको प्रणाम करने से और कुछ भी नहीं; सिर्फ दुःख का तथा कर्म का क्षय; समभावपूर्वक मरण और सम्यक्त्व मुझे अवश्य प्राप्त हो ॥ ४ ॥ सर्वमङ्गलमाङ्गल्य, सवकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जन जयति शासनम् ॥५॥ अन्वयार्थ---'सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्व मंगलों का मंगल' 'सर्वकल्याणकारणं' सब कल्याणों का कारण; 'सर्वधर्माणां' * दुःवक्षयः कर्मक्षयः समाधिमरणं च बोधिलाभश्च । संपद्यतां मर्मतत, तव नाथ ! प्रणामकरणेन ॥ ४ ॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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